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________________ कटहल १९३६ - कटहल (सः) कण्टालुफलवृक्ष, अतिवृहत्फल, पनशः, कंटकिफलः, पनसः, अतिवृहत्फलः (भा०) कणाशः, महासजः, फलितः, फलवृक्षकः, स्थूलः, कण्टाफलः, मूलफलदः, कण्टालुफल (वृक्षः) कण्टकमहाफल (वृतः), कण्टकफलः, करटकफला, कण्टकि (की) फल:, करटाफलः, पनसतालिका, कण्टीफल, स्थूलकण्टफलः-सं० ।कटहर, कटहल, कटर, कंथल, कठैल-हिं । फणस-द०, को०, मरा० । काँटाल गाछ-बं० । चक्की-फ्रा० । श्रा कार्पस इंटेग्रिफोलिया Artocarpus integrifolia, Linn-ले० । इंडियन जैक ट्री Indian Jack tree-अं० । जाक्कोर Jaquier-फ्रां | इंडिश्चर ब्राड बाम Indischer broad baum-जर पिल्ला,पलचूता० | पणस-ते०, उत्, उड़ि। पनस-ते०। पिलव, कंडकि फल-मल हलसिन, हणसीन हण-कना० । हलसीन हणु-का० । पणस, मान फणस, फणस-गु० फणस-मरा०ाफणस-बम्ब। पिला-पज़.म-मद। पेइंगनाई-बर० । फणसश्रौ। पनश वर्ग (N. 0. Artocarpacea) उत्पत्ति-स्थान-कटहल भारतवर्ष के सब गरम | भागों में लगाया जाता है, तथा पूर्वी और पश्चिमी घाटों की पहाड़ियों पर एवं पूर्व पर्वत पर यह श्राप से श्राप होता है । सह्याद्रि पर्वत के सदा हरिद् वर्ण वन में कटहल लगाया और प्रकृत अवस्था में भी पाया जाता है। वानस्पतिक वर्णन-एक सदाबहार घना वृहत् वृक्ष जिसकी पत्तियाँ अंडाकार ४-५ अंगुल लंबी, चर्मवत् कड़ी, मोटी और ऊपर की ओर श्यामता लिये हुये हरे रंग की प्रकाशमान एवं मसृण और नीचे रूक्ष होती हैं। नव पल्लवों पर क्षुद्र एवं रुक्ष कुंतल रहते हैं । मध्य पशुका इसके अधः पृष्ठ पर प्रशस्त ज्ञात होती है। उसकी दोनों ओर चार से सात इंच तक ७८ पार्वीय शिरायें निकलती हैं। पत्रों के नीचे का अनुबंध बड़ा होता है। उसका चौड़ा अाधार पत्तोंसे मिला रहता और गिर पड़ता है । इसका वृक्ष ४०-५० फुट ऊँचा | होता है । इसका तना छोटा, खड़ा और मोटा होता है । इसका अर्द्धगोलाकार शिखर श्याम वर्ण के पत्तों से मंडित होता है । शाखा विकटाकार फलों के भार से झुक पड़ती है। शाखाओं पर मंडलाकार उत्थित रेखायें देख पड़ती हैं । इसमें बड़े-बड़े फल लगते हैं जिनकी लम्बाई हाथ,डेढ़ हाथ नककी और घेरा भी प्रायः इतना ही होता है । ऊपर का छिलका बहुत मोटा होता है जिस पर बहुत से नुकीले कंगूरे होते हैं । जिस कटहलके छिलके पर ये कंगरे जितने अधिक कठिन और लंबे हों,उसके भीतर ये दाने उतना ही उत्तम और बड़े निकलते हैं और मीठा भी होते हैं। फल के भीतर बीच में गुठली होती है जिसके चारों ओर मोटे मोटे रेशों की कथरियों में गूदेदार कोए रहते हैं। कोए पकने पर बड़े मीठे होते हैं। कोयोंके भीतर बहुत पतली झिल्लियों में लिपटे हुये बीज होते हैं, जो वृक्काकार और तैलमय होते हैं । फल माघ फागुन में लगते हैं और जेठ अषाढ़ में पकते हैं। कच्चे फलकी तरकारी और श्रचार होते हैं और फल के कोए खाये जाते हैं। कटहल नीचे से ऊपर तक फलता है, जड़ और तने में भी फल लगते हैं। कटहल के वृहत् फल को फल समूह समझना चाहिये । जिसमें ५० से ८० कोये निकलते हैं । क्योंकि अनन्नास की भाँति पुष्प समूह से उत्पन्न होनेवाले फलों का राशीकरण है। विभिन्न फल प्रायः संस्तर कहलाते हैं। प्रत्येक फल में एक बीज होता है। कटहल अनेक प्रकार के होते हैं। उनमें से कुछ के दाने छोटे और कोमल होते हैं और उनमें से दुर्गधि पाती है। यह उसकी निकृष्टतम जाति है। परन्तु किसी के दाने मध्यमाकार होते है और किसी के सुस्वादु,रेशारहित और सरस होते हैं और शीघ्र टूट सकते हैं और उनसे सुगंधि पाती है। इसको खाजा" कहते हैं ।कुछ कटहल ऐसे हैं,जिनके दाने अति सूक्ष्म, तंतुशून्य और सरस होते हैं,मुह में डालते ही घुल जाते हैं। यदि फल में से निकाल कर रख दें तो क्षण भर में स्वयं घुल जाते हैं। यह सर्वोपरि जाति का कटहल है। ज़मीन के भीतर इसकी जड़ में होनेवाला कटहल सबसे अधिक सुस्वादु, मधुर और सरस और
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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