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________________ कटहल १८३७ बहुत बड़ा होता है। कहते हैं कि यह एक सेर से " लेकर १ मन तक देखने में श्राया है, जिसतें एक-सो तक को होते हैं । कटहल में से दूध निकलता है, जो बहुत चिपकता है । जब यह शरीर में चिपक जाता है, तब बिना स्नेह लगाये साफ़ नहीं होता । इसकी छाल से भी एक प्रकार का बड़ा लसोला दूध निकलता है जिससे रबर बन सकता है। इसका गोंद जल- विलेय होता है। इसकी लकड़ी नाव और चोट आदि बनाने के काममें आती है । इसके को उबालने और टपकाने से कर्करा गंध एवं अद्भुत स्वादविशिष्ट महसार का पेय प्राप्त होता है। कटहल के उगाने के खोदकर उसे गोबर से जून वा जुलाई में जाता है। भर लिये पहले एक गड्डा देते हैं । फिर उसनें बीज डाला कटहल का इतिहास - भारतवर्ष ही कटहल का मूल उत्पत्ति स्थान है, क्योंकि यहाँ अनेक स्थलों में यह आपसे श्राप होता है। यहीं से ई० सन् ७८२ में एडमिरल रोडनी इसे जमेका ले गये । श्रव ब्राज़िल मॉरिशस श्रादि स्थानों में भी यह लगाया गया है । अनेक प्रकार को लकड़ी की सामिग्री बनाने के हेतु इसकी लकड़ी भारतवर्ष से युरोप भेजी जाती है। बौद्धों के मंदिरों पर प्रायः कटहल देखने में श्राता है। कारण वौद्धमतावलंबी इसके वृक्ष को पवित्र सकते हैं । भारतवर्ष में इसके फल का कोया खाद्य के काम आता है । पर युरुपनिवासो बहुधा कटहल नहीं खाते। औषधार्थ व्यवहार - फल, बीज, पत्र, मूल और वृक्ष जात दूधिया रस वा दूध फल मज्जा वा गूदा अंडवृद्धि में और कोमलपल्लव चर्म रोग हितकारी है। रासायनिक संघट्टन — इसकी सूखी लकड़ी में ५. मोरिन (Morin ) और एक स्फटिकीय उपादान ( Cyanomaclurin) पाये जाते हैं। बीज में श्वेतसार की प्रचुर मात्रा पाई जाती है । औषध निर्माण- - काथ (मांसग्रंथिशोफोप(योगी), प्रभाव वा क्रिया - इसका परिपक फल स्निग्ध २५ फा० कटहले संपादक, पोक ( Nutritive ) और मृदुरेचक ( Laxative ) है और अपरिपक्व फल संग्राही ( Astringent ) है । धर्म तथा प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार 1 पनसं मधुरं पिच्छिलं गुरु हृद्यं बलवीर्य वृद्धिदम् । श्रमदाह विशेोपनाशनं रुचिकृद्ग्राहि च दुर्जरं परम् ॥ ईषत्कपायं मधुरं तद्बीज वातलं गुरु । तत्फलस्य विकारव्नं रुच्यं त्वग्दोष नाशनम् ॥ बालं तु नीरसं हृदां मध्यपक्कं तु दीपनम् । रुचिदं लवणाद्युकं पनसस्य फलं स्मृतम् ॥ ( रा० नि० ११ व० ) कटहल — मधुर, अत्यन्त पिच्छिल, भारी, हृद्य, वलवीर्यवर्द्धक तथा धन, दाह और शोधनाशक, रुचिकारक, ग्राही और कठिनता से पचनेवाला है । इसका बोज कुछ कुछ कसेला, मधुर, वातकारक और भारी है। इसका फल विकारनाशक, रुचिकाकहै । कच्चा कटहल नोत्स हृद्य है । अधपका कटहल का फल रविश यक है । तन्मज्ञ्ज गुणाः शुक्रलं त्रिदोषनं विशेषेण गुल्मितां न हितम् । (रा०नि० ० ११) कटहल की मजा शुक्रवर्द्धक और त्रिशेना एक है तथा गुल्म रोगी को विशेष रूप से चहितकारी है। पनशं शीतलं पक्वं स्निग्धं पित्तानिलापहम् । तर्पणं वृंहणं स्वादु मांसलं श्लेष्मलं भृशम् ॥ बल्यं शुक्रप्रदं हंति रक्तपित्त क्षत व्रणान् । श्रमं तदेव विष्टंभि वातलं तुवरं गुरु ॥ दाहकृन्मधुरं बल्यं कफमेदो विवर्द्धनम् । पनसोद्भूत बीजानि वृष्याणि मधुराणि च ॥ गुरुणिबद्ध विकानि सृण्मूत्राणि संवदेत् । मज्जापन सजो बृध्यो वातपित्त कफापहः ॥ विशेषात्पनसी बज्य गुहिमभिर्मदवह्निभः । ( भा० )
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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