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________________ नाते कुल्लिय्य: १८५० मौसम गर्मा, (३) ख़रीफ़ अर्थात् पतझड़ - मौसम खिज़ाँ और ( ४ ) शिता अर्थात् शरद् ऋतु - मौसम सर्मा, ज़मिस्ताँ । चौक़ाते कुल्लिय्य:-[अ०] किसी व्याधि के प्रागुक्र काल चतुष्टय जो रोगारम्भ काल से रोग के अन्त तक होते हैं । वि० दे० "चौकातुल् मर्ज़ " । औक़ाते जुज्इय्यः [ श्रु० ] रोग के वे काल चतुष्ठय ( इब्तिदा, तज़य्युद, इंतिहा और इनहितात ) जो कभी रोग के प्रारम्भ से लेकर रोगांत तक होते हैं और कभी रोग के प्रति नौबत के समझे जाते हैं । अस्तु, उक्त दशा में उनको “श्रौक़ा तजुजुइय्यः " संज्ञा से श्रभिहित करते हैं । श्रौकारी-संज्ञा स्त्री० दे० " पित्तपापड़ा" । औक़ियः-[अ० 'श्रवाकी बहु० ] एक माप जो ४० दिरम ( =१ श्राउन्स = २ || तो० ) के बराबर होती है | ounce. कछार-संज्ञा पु ं० [सं० यवतार ] जवाखार । -संज्ञा पु ं० [सं० श्रौषध ] दे० " श्रौषध" । खर- संज्ञा पुं० [सं० नी० ] उद्भिद । पांशुलवण । धन्व० नि० । खल - संज्ञा स्त्री० [सं० ऊपर ] वह भूभि जो परती से बाद की गई हो । - वि० [सं० ० थाली वा बदलोही में पकाई हुई वस्तु । स्थाली पक्क ( अन्नादि ) । ख्येयक- वि० [सं० त्रि० ] स्थाली पक्क । बरतन में पकाया हुआ ( अन्नादि ) औगेंस-कूटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] धमनी विशेष | ( Thoraco-acromial ) अ० शा ० । औच्चैःश्रवस-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] इन्द्र घोटक । इन्द्राश्व । इन्द्र का घोड़ा । छ - संज्ञा स्त्री० [देश० ] दारुहल्दी की जड़ । प्रज-संज्ञा स्त्री० दे० " श्रीज" । जस-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] सोना । स्वर्ण । श्रौजा - [ ० बहु० ] [ एक व० वजूअ ] दुःख | व्यथा | पीड़ा । औजार-संज्ञा पु ं० [अ०] यंत्र । हथियार । इंष्ट्र मेट | [अ०] एक प्रकार का मृदुल एवं सफ़ेद जिसमें प्रदाह और दर्द नहीं होता । परन्तु सूजन, श्रद भारीपन होता है और कभी हलका दर्द भी होता है । वर्म रिव । ( Oedema ) - श्रं० । ढीला वरम | नोट- प्रौज़ीमा, वर्म रित्र और तहब्बुज के अर्थान्तर के लिए दे० " तहब्बुज" । श्रीमा उल्- मिजार- [ ० ] स्वरयांत्रीय मंदशोथ । मिज़मार का तहब्बुज । ( Oedema of the Glottis ) । औटन -संज्ञा स्त्री० [हिं० ] ( १ ) गर्म करने की हालत । ( २ ) एक प्रकार का चाकू । श्रौटा - वि० [हिं०] उबला हुआ । जो आग पर रखने से जलकर गाढ़ा होगया हो । टी-संज्ञा स्त्री० [हिं० श्रटना ] ( १ ) वह पुष्टई जो गाय को व्याने पर दी जाती है । (२) पानी मिलाकर पकाया हुआ ऊख का रस । - वि० [सं० क्रि० ] श्राद्ध' । तर । गीला । औड़-(ड़)म्बर-संज्ञा पु ं० [ सं० नी० ( १ ) एक प्रकार का कोढ़ का रोग। मे० । सात प्रकार के महाकुष्ठों में से एक। इसमें पीड़ा, दाह, लाली श्रीर खुजली होती है तथा रोम रोम कपिल वर्ण के होजाते हैं । इसका आकार गूलर के फल की तरह होता है । श्रौदुम्बर । मा० नि० । ( २ ) ताम्र । ताँबा । जटा० ( ३ ) गूलर । उदुम्बर फल । वि० [सं० त्रि० ] उदुम्बर सम्बन्धी । औौडपुष्प-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] अढ़उल । जपा | जवाकुसुम | हे०च० | श्री एक-संज्ञा पुं० [सं० की ० ] वेद का एक गान श्रतादुलकम - [अ०] दंत । मुँह की मेखें । तार - [अ०] बहु० ] [ वतर एक व० ] कण्डराएँ । नसें । ( Ligaments ) कण्ठ्य-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] औत्सुक्य | औत्सर्गिक - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) प्राकृतिक | स्वाभाविक । ( २ ) त्याज्य | छोड़ने योग्य । औत्सुक्य-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ( १ ) उत्सुकता उत्कण्ठा । इच्छा ( २ ) चिन्ता । वा० भ० उ० १ श्र० । श्रौद - [अ०] ( १ ) लौटना | पलटना । पुनरावर्त्तन । (२) बीमार पुर्सी करना । ( ३ ) किसी काम
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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