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________________ औदक १८५१ श्रौदालक शर्करा का बनना । (४) अवस्थांतरित होना । एक इसमें पीड़ा, जलन, लाली और खुजली अवस्था से दूसरी अवस्था में जाना । होती है। औदक-वि० [सं० वि०] पानी से भरा हुआ घड़ा। नोट-औदुम्बर गूलर को कहते हैं । यह कोद जल पूर्ण घट। औदुम्बर के समान होता है, इसी से इसका उन औदकज-वि० [सं० वि.] जलीय वृक्षों से उत्पन्न । नामकरण किया गया है। जो भाबी पौधों से पैदा हो। वि० [सं० त्रि०] (1) उदुम्बर सम्बन्धी औदश्चन-वि० [स. त्रि० ] जलाधार स्थित । वा गूलर का बना हुआ । (२) ताँबे का बना घड़े में भरा हुआ। हुश्रा । औदश्चनक-वि० [सं० त्रि.] जलाधार के निकटस्थ औदुम्बरच्छद-संज्ञा पु० [सं० पु.] दन्ती का घड़े के पास रहनेवाला। पौधा । औदगान-वि० [सं० वि०] जलधर सम्बन्धी । जो औदुम्बरादियोग-संज्ञा पु० [सं० पु.] उक ___कूएँ या मरने से निकाला गया हो। नाम का एक योग-गूलर के मूल की छाल का क्वाथ औदनिक-संज्ञा पु[सं० पु.] (१) भात कर पीने से दाह शांत होता है एवं गिलोय का बनाने वाला । सूपकार । रसोइयादार। अमः। सत मिश्री मिलाकर सेवन करने से पित्तज्वर का (२) पका चावल अर्थात् भात दाल बेचने- . नाश होता है । वृ० नि० २० व. चि०। वाला। औदुम्बरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का औदरिक-वि० [सं० वि०] (1) उदर सम्बन्धी। कृमि । (२) बहुत खानेवाला। पेट । पेटुक । तुधित । औदूखल(-ली)-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) भूखा। ___(acetabular)। (२) (Alveol) औदय्य-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री.] ताम्र । ताँबा ।। औदूखल-कोटि-संज्ञा पु० [सं क्रो० ] Alveolar (२) मैनफल । मदनफल । (३) गूलर। __ point) उन नाम को संधि । अ० शा। वि० [सं० त्रि० ] उदर सम्बन्धी। पेट का । औदूखच्छिद्र-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री] Acetabuऔदरिक। lar notch) उन नाम का एक छिद्र अशा औदाल (क)-संज्ञा पु० [सं० क्री ] दीमक और औदश्वित-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री.] अाधे जल का | बिलनी श्रादि बाँबी के कोड़ों के दिल से निकला मट्ठा । अर्द्धजलयुक्र घोल | हे. च०। हुश्रा चेप वा मधु । रा०नि०व०१४ । · वि० [सं० वि०] जो मठे से प्रस्तुत किया गुण-कषैला, गरम तथा कटु होता है और गया हो। कुष्ठ एवं विष का नाश करता है । राज०।यह कुष्ठादि औदस्थान-वि० [सं० त्रि०] जलवासशील । पानी दोगनाशक और सर्व सिद्धिदायक है। रा०नि० में रहनेवाला। व०१४ । भावप्रकाश के अनुसार बाँबी के मध्य औदाज-[अ० बहु.][एक व० वदज़ ] गरदन स्थित कपिल वर्ण के कीट, जो कुछ-कुछ कपिल को रग। (Jugular-vein)। वर्ण का मधु एकत्रित करते हैं, उसे प्रौद्दालक मधु औदीन्य-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] थलियभर । कहते हैं। यह रुचिकारक, स्वर को हितकारी, (Thullium) अ० शा० । कषैला, गरम, अम्ल, कटुपाकी तथा पित्तकारक औदुम्बर-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] (1) ताम्र । है और कोढ़ एवं विष का नाश करता है। भा० ताँबा । हारा०। (२) एक प्रकार का महाकुष्ठ | पू० भ० भधु व०। धन्वन्तरि तथा राजनिघंटु रोग, जो पके गूलर के फल के समान होता है ।। दोनों के मत से "प्रौद्दालक मधु" स्वणं सदृश यह पित्तज होता है। सु. नि. अ. ५। इसमें होता है। व्याधिस्थान के रोएँ पिंगज वर्ण या पोले होते हैं। औदालक-शरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] उहालक
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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