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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरण्यमाताद उसके बीज चिकने और आकार में इससे दुगुने बड़े होते हैं 1 ५८२ सूक्ष्म रचना - बीज बाह्य त्वक् तथा ग्रलच्युमेन को सूक्ष्मदर्शक द्वारा परीक्षा करने पर ये चावल मृगरा वीजवत् पाए जाते हैं। रासायनिक संगठन-बीज में लगभग ४४% स्थिर तैल होता है, जो गंध या स्वाद में चालमगरा तैल के समान होता है । तेल में चाल मूमिकाम्ल तथा हिड्नां कार्षिकाम्ल और किंचिन् मात्रा में पामिटिक एसिड होता है । उपर्युक्त दोनों अस्ल स्फटिकीय होते हैं । प्रयोगांश-- बीज तथा तैल | इन्द्रियव्यापारिक कार्य - परिवर्तक, बल्य, स्थानिक उत्तेजक ( मां० श० ), पराश्रयी कीटन, वीज शोधक है । श्रीषध निर्माण -- औषधीय उपयोग और इनकी प्रतिनिधि स्वरूप युरूषीय द्रव्य - चाल. मृगराके बीज और तैल 1 मात्रा--तैल-- १२ बुद से २ ड्राम पर्यन्त ( १-२ लइड ड्राम ) श्रथवा आमाशयपूर्ति पर्यन्त | बीज- क्रमशः इन्हें १५ ग्रेन (७॥ रत्ती ) से २ ड्राम तक बढ़ाएँ । अन्तः रूप से बीज को चबाकर केवल रस को निगले; पर सम्पूर्ण वस्तु को नहीं। बीज की अपेक्षा तैल अधिक लाभदायक, संतोषजनक तथा उत्तम है। तेल बालमृगरा तैल की उत्तम प्रतिनिधि है | पूर्ण लाभ हेतु इसका पूर्ण औषधीय मात्रा में उपयोग करना चाहिए । नोट- क्योंकि यह बहुत स्वरूप मूल्य की वस्तु है, श्रस्तु अकेले ही बिना किसी अन्य तैल के सम्मेलन के इसका वहिरप्रयोग करना चाहिए । I उपयोग--खजू (तरखुजली) तथा विस्फोटक आदि व्यग्रोगों में इसके बराबर कानन एरण्ड तैल ( Jatropha curcas oil ) मिश्रित कर उसमें गंधक २ भाग, कर्पूर श्राधा माग, तथा नीबू का रस १० भाग योजित कर इसका अभ्यंग करते हैं । प्रलेप वा इमलशन रूप में इसका वाह्य उपयोग होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद शिरोदग्ध व्रण में इस का तैल तथा चूने को पानी समान भाग में प्रलेप रूप से उपयोग में आते हैं । (डाइमांक ) यह श्रामात विषयक वेदना को शमन करता है और इसे रोगों में बर्तते हैं । भस्मों (चारीय) के साथ मिलाकर इसे विधि चक्षुतत तथा अन्य क्षतों पर लगाते हैं । हीडी 1 ट्रावनकोर में श्राधे चाय के चम्मच भर की मात्रा में इसे कुष्ठ रोगों में देते हैं, और एरण्ड की गिरी तथा छिलके के साथ कुचल कर खुजली में इसे औषष रूप से उपयोग में लाते हैं । (डायमीक ) यद्यपि १५ बुद से २ ड्राम की मात्रा में कुष्ठ, विभिन्न प्रकार के त्वग्रोग : उपदेश की द्वितीय कक्षा और पुरातन श्रमदात में इसका श्रन्तः प्रयोग होता है; तथापि इसके उपयोग में अत्यंत सावधानी श्रावश्यकता होती है। कहा जाता है कि यह श्रामाशय तथा यान्त्र क्षोभक है क्योंकि कतिपय दशाओं में इसके उपयोग से वमन व रेचन थाने लगते हैं। (बैट) इसका तैल कुछ के लिए न्यारा तथा बालमृगरा से श्रेष्ठतर अनुमान किया जाता है । इसकी मात्रा ५ बुन्द से क्रमशः बढ़ाकर ३० बुद पर्यन्त है । कुछ में मांसांतरीय वा शिरान्तः श्रन्तः शेप द्वारा भी इसे प्रयुक्त करते हैं। ईथिलेस्टर्स के मांसांतरीय वा इसके लवण ( चं लमूग्रिक तथा हाइड नोकर्पिकारल ) के शिरान्तरीय प्रन्तः क्षेपों के सर्वोत्तम परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। इससे लेना बेसिलाई ( कुष्ट के जीवाणु ) और अंधिकों ( Nodules ) का अन्त हो जाता है । (चक्रवर्ती) डॉक्टर एम०सी०कॉमन देशी औषध विषयक मदरास समाचार में जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है। एक पुरातन कुष्ट रोगी का उल्लेख करते हैं, कि उसे उक्र तैल के अन्तः ( मुख द्वारा ) एवं स्वस्थ ( अन्तःक्षेप ) प्रयोग से ( रोग की विभिन्न अवस्थाओं वा भेदोंस्पर्शाज्ञता, मिश्र, ग्रंथि युक्र तथा ततज इत्यादि For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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