SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 625
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद ५३ अरण्यवातादें में) अस्यन्त लाभ हुआ । ५७द उन तैल तथा / jaar gi fouin aar ( Pythons fat ) इन दोनों को मिलाकर तथा एक एक बूद दैनिक तैल की मात्रा बढ़ाते हुए उक्र मिश्रण का उस: समय पर्यन्त मांसांतर अन्तःक्षेप करें, जिसमें मात्रा ३० वा ४०बूंद हो जाए। किसी किसी रोगी को बीज की गिरी पिसी हुई, नारि.. केल तेल, सोठ तथा गुड़ (Jaggery) द्वारा । निर्मित लड़ भी दिया गया । इसका तेल । १.बूद की मात्रा में कलेवा से १ घंटा पुर्व तथा । पाक २० ग्रेन ( १० रत्ती ) की मात्रा में संध्या । काल में दिया गया। इस प्रागक्र. चिकित्सा से । पूर्व विशुद्ध विचूर्णित जयपाल बीज का ८ से १० दिवस पर्यन्त रेचन दिया गया 1 उपयुक्र चिकित्साके अतिरिक्त किसी किसी रोगीको सप्ताह में २ बार सोडियमहाइड नोकाट-धोल (२ घन शतांश मीटर) का त्यस्थ अन्तःक्षेप किया गया। परिणाम निम्न हुश्रा -"जो कुछ मैं ने देखा उसमें सन्देह नहीं कि अरण्यवाताद ( H. ! Ine brians) कुष्ठ की घृणायुक्र दशानी के | सुधारने के लिए एक शक्रिमान औषध है।" __ कलकत्ता के वैज्ञानिक अन्वेषक डाक्टर : सुधामय घोश अक्टुबर मास सन् १९२० ई. । के इण्डियन जर्नल ऑफ मेडिकल रीसर्च में ! लिखते हैं कि कुष्ठ की चिकित्सा में हाइड्नी । कार्पिकाम्ल का सोडियम साल्ट अत्यन्त गुणदायक ! एवं उपयुक्र पाया गया । उनका कथन है कि अरण्यवाताद ( Hydnocarpus Vigh ! tiana) तथा लघु कवटी (H. Veneata.) द्वारा प्राप्त तैल, चॉलमूगरा तैल की अपेक्षा ! अधिक मुलभ है। चॉल मूगरा तैलसे तुलना करने पर ५.५ प्रतिशत के स्थान में उनमें अधिक (१० प्रतिशत ) हाइड्नो कार्पिकाम्ल वर्तमान होता है । अस्तु, मितव्ययता के विचार से कुछ चिकित्सा में उनका उपयोग योग्य प्रतीत होता है । यक्ष्मा, छिलका युक्त विस्फोटक, कंठमाला के ग्रंथिकों, हठीले स्वगोगों यथा कंड, राभायुक्त विस्फोटक ( Lichen), रकसा (Prurigo) तथा उपदंश मूलक त्वगोगों पर उक तैल का अभ्यंग करते हैं। दुर्गन्धित (पूतिगंध युक) नावों में विशेषतया प्रसव के पश्चात् योनि शोधन रूप से योनि में तथा पूयमेह में इसके बीज के शीत कपाय का मूत्रमार्ग में पिचकारी करते हैं । सुश्रुत महाराज स्वरचित सुश्रुत संहिता नामक प्रामाणिक संस्कृत ग्रंथ में लिखते हैं कि कुष्ट रोग में खदिर काथ के साथ चावलमूगरा तैलके सेवन करने से इसकी गुणदायक शक्कि अधिक हो जाती है। यदि यह सत्य है तो चॉलमूनिकाम्ल खदिरोल (Catechol ) के साथ, जो उसका प्रभावात्मक सत्व है, सम्मिलित कर परीक्षा की जा सकती है। कहा जाता है कि डॉक्टर उन्ना ( Unna ) ने पाइरोगयलोल का, जो खदिरोल के बहुत समान है, पोपिद (Oxide) रूप में कुष्ठ रोग में सफलता पूर्ण उपयोग किया। कुष्ठ रोग की श्रायुर्वेदिक चिकित्सा में चालभूगरा तैल तथा गोमूत्र दोनों अन्तः एवं वहिर रूप से उपयोग में आते हैं । इसके विषय में माधुनिक सर्वश्रेष्ट भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र घोश महोदय लिखते हैं कि सम्भवतः तेल के अम्लों का मूत्र के सैन्धजम् (Sodium ) तथा अमोनियम अादि लवणों से सम्पर्क होने पर कुछ हारीय लवण बनजाते हैं और विलेय होने के कारण ये रोगी के रक्क द्वारा समस्त शरीर में च्याप्त हो जाते हैं तथा चें। लमूगरम्ल के विलेय लवणों की तरह प्रभाव करते हैं । (ई० मे० मे०) अश्व के वर्षाती नामक रोग में यह तेल औषध रूप से प्रयुक्र होता है। (२) जंगली बादाम-हिं०, बम्ब० मह । वाइल्ड प्रामण्ड ( Wild almond), पून ट्री (Poon tree.)-ई. स्टरक्युलिया फीटिडा ( Sterculia Foetida, Jinn.)-ले०। पून-बम्ब० ॥ कुड़प डुक्कु, पिनारी, कुद्दुरई- पुड्डकी, कुद्र फुक्कु, पिनारी(-थ) मरम्-ता० । गुरपू बादाम-ते। पिनारी मर, भाटला-कना० । पोट्ट-कवलम For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy