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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अरण्यमुङ्गः www.kobatirth.org ५=१ • गैड फ़्लाई ( Gad fly ) - इं० । माछि-० श० १० । अरण्य मुद्रः aranya-mudgah - सं० पुं० वनमुद्र, बनग, मुद्गपर्णी । घोड़ा मुग-ब० । ( Phaseolus Trilobus Ait ) रा० नि० ० १६ | देखो -- मकुष्ठकः । श्ररण्यमुद्गा aranyamudgá सं० त्रो० मुद्रपर्णी, बनमूँग - हिं० । मुगानि - चं० | (Pha• seolus Trilobus fit.) रा०नि० व ३ । अरण्य मेथां aanya-methi - सं० स्त्री० वन मेथिका, बनमेधा, जंगली मेथी । बन मेति - बं० | राणमेथि - मह० । ( Sec- Vanamethi) ० निघ० । अरण्य रजनी aranya-rajani-सं० स्त्री० वनहरिद्रा, जंगली हलदी । बन हलुद-बं । राण हलद मह० । ( Curcuma Aroma tica.) वँ० निघ० । श्ररण्यलक्ष्मो aranya lakshmi ० स्त्री० वन लक्ष्मी, रम्भा फल, श्ररण्य कदली, जंगली केला | Wild Plantain ( Musa Paradisiaca ). अरण्य वाताद aranya-vatad-सं० पुं० (१) बीज - जंगली बादाम - हिं० द० | हिड्नो का वाइटिना ( Hydnocarpus Wightiana, Blume ), हिं० श्राइने - ब्रिश्रंस (H. inebrians, Wall.)-ले० | अंगूल श्रमण्ड (Jungle Almond ) - ई०। नीरडि-मुत्त, एड्डी-ता० । नीरडि-वित्तु लु - ते० । कडु कवथ, कौटी मह० । तमन, मरत्रेति - मल० | रट केकुन, मकूलू सिं० 1 कोष्टी गां०। कोटी - स्व० । तैल-जंगली बादाम का तेल -६० । नीरडि मुक्त्त पुराणेय - ता० । नीरडिवित्त लु-नूने. - ते० । कुष्ठरी वा बॉलगरा वर्ग (N. O. Bixineoe.) उत्पत्ति स्थान - पश्चिम प्रायद्वीप, दक्षिण कोकणसे ट्रावनकोर पर्यन्त, मालाबार और दक्षिण के कुछ अन्य भाग । भारत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद जो इतिहास- - उक्र वृक्ष के इतिहास के विषय में कुछ हमें ज्ञात है, वह यह है कि पश्चिम समुद्र तट पर यह कतिपय हठीले त्वग्रोगों में गृह औषध रूप से चिरकाल से उपयोग में आ रहा है। तथा निर्धन जाति के लोग जलाने तथा श्रौषate उपयोग हेतु इसका तेल निकालते हैं । (डाइमांक) वानस्पतिक विवरण - इसका फल गोलाकार सेव के श्राकार का होता है; जिसके ऊपर एक खुरदरा मोटा धूसर रंग का छिलका होता है, जो बाहर की ओर कॉर्कवन और भीतर से काष्टीय होता है, जिस पर बृहदाद जटित होते हैं; पर किसी किसी वृच में अनुदिशून्य फल भी होते हैं। इसके भीतर १० से २० अधिक कोणाकार बीज जो करीब करीब इ० लम्बे, 1⁄2 इं० चौड़े और ३ से ४ इं० मोटे, सामान्यतः विषम अंडाकार कभी कभी अंडाकार या आयताकार होते हैं और जिनके ऊपर का सिरा नीचे की अपेक्षा अधिक नोकीला होता है । बीज श्वेता में रखे रहते और श्याम पतले बाह्यत्व से मज़बूती के साथ चिपके रहते हैं । मज्जा को खुरच कर पृथक करने पर बीजस्व का वाह्य पृष्ठ खुरदरा और लम्बाई की रुख छिछली नलिकाकार धारियों से युक्त दीख पड़ता है । उभार स्पष्ट व्यक्र नहीं होते छिलके के भीतर भरपूर तैलीय अल्ब्युमेन होता है, जिसमें चीलगरा के समान दो वृहद्, स्पष्ट हृदाकार तीन नसों से युक्त पत्रीय दौल होते हैं। ताजी अवस्था में अल्ब्युमेन का वर्ण श्वेत, किन्तु शुष्क होने पर गम्भीर धूसर वर्ण का हो जाता है । इसकी गंध चालमूगरा के समान होती है । मोहीदीन शरीफ के मतानुसार यह गन्धरहित तथा कुछ कुछ वातावत्, निर्बल मधुर स्वादयुक्क होता है । पारस्परिक दबाव के कारण प्रायः ये विषम हो जाते हैं। इसके बीज बॉलमूगरा के समान होते हैं; परन्तु ये आकार में छोटे तथा खुरदरे होते हैं जिनकी लम्बाई की रुख धारियाँ होती हैं। चावलमगरा में यह बात नहीं होती | For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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