SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अन्भवेल www.kobatirth.org ३६० नोट- अंत्रवृद्धि रोगी को बहुत इहतियात से विरेचन लेना चाहिए। यथासम्भव उसका न लेनाही उतम है । मलावरोध होने की दशा में उष्ण जल द्वारा वस्ति लेनी चाहिए । वृद्धि के लिए डॉक्टरी चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाली श्रमिश्रित श्रोषधे टार इमेटिक, झोरोफॉर्म, ईथर, श्रोपियम् ( अहिफेन ), लम्बाई एसीटास, टबेकम् ( तम्बाकू ), उच्य स्नान, रक्रमोक्षण और बर्फ । अत्रवेल antra-vela सं० एक हिन्दी दवा है (An indigenous drug.) अन्यश्छदश कला antrashchhada kalaहिं० संज्ञा स्त्री० श्रच्छदा कला, श्रत्रावरण, जरावरण । श्रमेण्टम् Omentum, एपिजून Epiploon, कॉल Caul इं० स. प्र.० वाशीमहे पियह, चार पिय-फा० । नोट- कॉल उस कल्ली को भी कहते हैं जो जन्ममकाल में शिशु के शिर पर लिपटी हुई निकलती है । वस्तुतः यह वयावरण का भाग है। एक उदर की वसामय मिली जो श्रोतों पर फैली होती है । वास्तव में यह उदरच्छदा कला का ही एक भाग है जो उसके नीचे श्रामाशयिक द्वार से कोलून तक परिस्तृत होता है । इसके दो भाग हैं. (1) बृहद् श्रच्छदा कला ( स. कबीर ) जो श्रामाशय के बृहन्मुख से प्रारंभ होकर कोलून तक जाती है इसको अँगरेजी में ग्रेट श्रमेण्टम् ( Great omentum ) कहते हैं । (२) सुत्र अच्छा कला ( स. सुगीर ) जो आमाशय के प्रमुख से प्रारम्भ होकर यकृत तक जाती है । श्रंगरेज़ी में इसको लेसर श्रमेण्टम् ( Lesser omentum ) कहते हैं । अन्त्रश्छदकला छेदन antrashchhadá-kaláchhedana - हिं० संज्ञा पु ं० [अश्कदा कता serene : का काटना | कृत्स्प. वे श्र० । ग्रॅमेरा टेक्टॉमी Omontectomy-० । मन्त्रश्छदाकला प्रदाह antrashchhadá-kala-pradah - हिं० संज्ञा पुं० अदा कला (श्रतों को आच्छादित करने वाली किसी ) की सूजन । श्रमेण्टाइटिस Omentitis '० । इतिहास. यं वर्म सर्व- ६० । अन्त्रश्छदिक वृद्धि antrashchhadikavridhi - हिं० संज्ञा स्त्री० मंत्रच्छदा कला के किसी भाग का उत्तर श्राना । एपिठोसीन Epi plocele ई० फ़क स ब ० । अन्त्र शोधक antrashodhaka - हिं० वि० पु० आंत्र पचननिवारक । दाफ्रिका तनु ने श्रञ्जा–अ०। Intestinal antiseptics - ई० । श्रत्रस्त दयों में प्रभिषव ( खमीर ) अथवा साँध पैदा न हो या उनमें सबे हुए द्रव्यों को अभिशोषित होने से रोकें इस हेतु कभी कभी पचननिवारक ( Antiseptic ) औषधों का उपयोग होता है । अस्तु समस्त श्रामाशय - पचननिवारक ( Gastie antiseptics) तथा दुग्धाम्ल (Lactiacid) और सैनोल ( Salol) और केलोमेल इस प्रयोजन के लिए व्योहार किए जाते हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोट- श्रांत्रस्थ द्रव्यों का ( जब कि वे शरीरमें होते हैं) कीट रहित (Disinfectant) करना सम्भव है या नहीं ? यह बात अब तक संदेहपूर्ण है । यदि यह सम्भव हो तो यह लाभ प्रद भी है या नहीं ? क्यों कि श्रत्र के भातर सूक्ष्माणु विद्यमान होते हैं जो सामान्य अवस्था में प्रांत्र की पाचनक्रिया के सहायक होते हैं। पर तो भी ऐसी श्रौषधों के प्रयोग का यत्न किया जा रहा है। और उसमें किसी सीमा तक सफलता भी हुई है। श्रन्त्रशोवान्तकः antrashoshántakah-सं० पुं० नीबू, सहिजन, दुग्धवशरी (चमार दूधी ) चिरायता, गिलोय, शतावरी, श्रर्जुनमूल, त्रिफला, विदारीकंद, बला, असगंध, मुसली, वायविडंग इनके रस द्वारा कांत लोह में पृथक् पृथक् कई For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy