SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवृद्धि उतरने ही पाए और न उससे शारीरिक चेष्टा में किसी प्रकारको बाधा उपस्थित हो और न उसके निरतर उपयोगसे छिद्रका प्रसार ही हो। ठीक मापकी पेटी यदि किसी अन्य स्थान से मैंगाना हो तो वृद्धि भेद और यथार्थ माप लिखना चाहिए। ऊमन्त्रवृद्धि में माप लेने का नियम यह है- । पेड़ की अस्थि की ऊर्च धारा से लगभग १ इंच . नीचे वृद्धि के छिद्र तक पेश की परिधि को माप लें । इस नापके अनुसार पेटी मैंगवानी चाहिए। पेटी प्रत्येक पुरुष की मोटाई पर निर्भर है। पेटी से बद्धावस्था में स्थायी प्राराम नहीं होता जब तक ट्रस (पेटी) लगी रहे तब तक भाँत का हिस्सा नहीं उतरता, जब वहाँ ये न लगाई। जाएँ तो फिर आँत का हिस्सा उतर पाता है। परंतु यदि बाल्य एवं युवावस्था में प्रारम्भ से ही निरंतर १-२ वर्ष तक पेटी लगी रहे और उतने कालमें एक बार भी प्राँतका भाग न उतरा होतो वह मार्ग सदैव के लिए बंद होजाता है एवं रोगी स्वार य लाभ करता है। तो भी स्वस्थ होजाने के बाद भी रोगी को वर्ष दो वर्ष तक पेटी लगाते रहना चाहिए, जिसमें रोग के पुनराक्रमण की शंका न रहे। पेटी लगाने से यपि प्रारम्भमें किञ्जित् कष्ट अनुभव होता है। पर दो चार दिवस में ही वह दर हो जाता है । रात्रि में सोते समय पेटी को उतार देना चाहिए शेष सभी काल में उसको लगाए रहना चाहिए । प्रातः काल शय्या से उठने से प्रथम उसे लगा लेना चाहिए जिसमें वृद्धि के बार बार बाहर आने से उसका छिद्र बड़ा न हो जाए। अन्यथा पेटी लगाने का लाभ नष्ट होता रहेगा । पेटी को गद्दी अर्थात् पिचु भाग को स्वच्छ एवं शुष्क रखना चाहिए । उस पर कभी कभी वड़िया मिट्टी वा जिंक श्राक्साइड ( याद भस्म) अघचूर्णित कर दिया करें जिसमें नश तथा भार से वहाँ की स्वचा निर्बल एवं पतयुक्क न हो जाए । टिप्पणी यह उपक उपाय विम्यस्त होने वाली अन्न- मन्त्रवृद्धि वधि के लिए है। अस्तु, यह स्मरण रहे कि पेटी लगाने से पूर्व रोगी को उसान लिटाने और यँग सिकोड़ने से श्राँत वा परिविस्तृत कला का प्राया हुअा भाग स्वयमेव यथा स्थान चली जाता है। इस प्रकार उनको विन्यस्त करके फिर पेटी लगाएँ । यदि इस प्रकार वे यथा स्थान प्रविष्ट न हों तो वृद्धि को वाम हस्त की उँगलियों से पका कर दाहिने हाथ से उनको धीरे धीरे भीतर प्रविष्ट करें। किंतु यह स्मरण रखें कि जो भाग सबसे पीछे उतरा. हो वह सबसे पहिले भीतर जाए यदि इस प्रकार भी सफलता न हो तो शोरोफॉर्म सुंघाकर यह क्रिया करें। इस भाँति पेशियों को शिथिल कर हर्निया भीतर प्रविष्ट की जा सकती है। ___ यदि वृद्धि विन्यस्त न होने योग्य ( न दबने वाली अर्थात् यथास्थान न लौट जाने योग्य) हो तो पेटी का पिचुभाग वा गही ऐसी हो जो उसकी पूर्ण रक्षा कर सके और उस पर किसी प्रकार का भार न पड़े। इस प्रकार की वृद्धि में शोथ हो जाने पर रोगी को सुखपूर्वक लिटाए रखें, किसी प्रकार की गति न करने दे । . उसकी जानु के नीचे एक बड़ा सा तकिया रखें, जिसमें हनिया का छिद्र ढीला होकर वेदना कम हो जाए । वसा वा रबड़ की थैली में बर्फ भरकर शोध युक्र स्थान पर रखें और प्राध श्राध घंटा पश्चात् वृद्धि को धीरे धीरे नीचे और पीछे को श्याएँ । ऐसा करने से प्रायः हर्निया अपने स्थान पर चली जाती है और रोगी के प्राण बच जाते है । वेदना हरणार्थ मॉफी ( अहिफेनीन ) और पेट्रोपीन (धत्तूरीन ) का स्वस्थ अन्तःक्षेप करें, अथवा एक एक ग्रेन अहिफेन प्राध आध घंटा के अन्तर से तीन चार बार दें। परन्तु, स्वाने को कुछ न दें और विरेचन किसी दशा में न दें। २४ घंटे हर्निया के फैंसे रहने पर फिर उसमें शोथ होकर रोगी के प्राणांत हो जाने की आशंका होती है। प्रस्तु, यदि उसमें अवरोध प्रभृति हो - तो तत्काल बस्तिक्रिया करनी चाहिए। तदनन्तर उस पर बर्फ लगाना चाहिए । For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy