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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] कोई पूछे तो शीघ्र उत्तर देता हो ( मतं) श्लोक और पदादि वो वो संख्या भी जान ली हो (परिनितं जान ) यावत अननुक्रम से पठ भी लिया हो, ( एवं ) इसी प्रकार ( जावइया ) जितने ( अणुवउमा अागपत्रो) श्रागम से अनुपयोग युक्त पुरुष हैं (तावइयाई दवज्झयणाई ।) उतने ही द्रव्याध्ययन होते हैं। ( एवमेव ववहारस्सवि, ) इसी प्रकार व्यवहार नय का भी मत है, (संगहस्स ण) संग्रह नय के मत से (एगो वा अणेगो वा जाव)एक या अनेक यावत (से तं प्रागमयो दयज्झयणे ।) यही आगमसे , व्याध्ययन __ (से किं तं नोबागमश्री दव्यज्झयणे ?) नोआगम से द्रव्याध्ययन किसे कहते हैं ? (नोग्रागमो दवझयणे) नोआगम से जो अध्ययन क्रियायुक्त पठन-पाठन किया जाता है उसे नोआगम से द्रव्याध्ययन कहते हैं, और वह (तिविहे. पगणने,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा- ) जैसे कि-( जाणगसरीरदव्यज्झयणे ) ज्ञशरीर द्रव्याध्ययन ( भवियसरीरदव्वज्झयणे ) भव्यशरीर द्रव्याध्ययन और ( जाणगसरीर. भवियसरीर वइरिसे दव्य ज्झयणे) ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्याध्ययन । (से किं तं जाणगसरीरदव्यज्झयणे ? ) ज्ञशरीर द्रव्याध्ययन किसे कहते ? (जाणासरीरदवज्झयणे) ज्ञशरीर द्रव्याध्ययन उसे कहते हैं जो (अज्झयणपयत्थाहिगार) अध्ययन के पदार्थाविकार के ( जाणयस्स ) शाता का (जं सरीरं) जो शरीर हो (वाय) चेतना से रहित हो (चुअ) श्वासोच्छ वासादि दश प्रकार के प्राणोंसे रहित हो (च:त्रिय) प्राणों से विमुक्त हो चत्तदेह) देह छोड़ दिया हो (जीवविप्पजढं) आत्मा को अनेक बार छोड़ा हुआ हो, (नाव) यावत् (अहोणं) अाश्चर्य है कि (इमेणं) इस (सरीरसमुस्सएणं) शरीर के समूह से (जिण दट्टेणं भावेणं) जिनेश्वर भगवान के उपदेश किये हुये को अपने भाव से ( अझयणेतिपदं ) अध्ययन रूप एक पद का (प्राधवित) प्रहण किया हो (जाव) यावर (स्वदंसितं) सबनय और युक्तियों से उपदेश किया हो (नहा को दिéतो ?) जैसे कोई दृष्टान्त भी है ? (अयं) यह (घयकुभे) घो का घड़ा (ग्रासी) था * व्यपगतं चैतन्यपर्यायादचैतन्य लक्षणं पर्यायान्तरं प्राप्तम् । च्युतं--उच्छ्वासनिःश्वासजीवितादिदशविधप्राणेभ्यः परिभ्रटम् । च्यावितं-बलीयसा प्रायुःक्षयेण तेभ्यः परिभ्रशितम् । त्यक्तदेह-'दिह उपचये' त्यस्तो देह आहारपरिणति जनित उपचयो येन तत् त्यक्तदेहम् । जीवविप्पजई-जीवेन-श्र त्मना विविधम्-अनेकधा प्रकरण मुक्त-जीवविप्रमुक्तम् । पुद्गलसंख्यतत्वात्समुच्छरस्तेन । प्राघत्रियं-नाकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च द्वयोः सकाशादागृहीतम् । उवदंसितं-उपदर्शितं सर्वनययुक्तिभिः । छान्दसत्वादागामिनि काले भाविनि भृतवदुपचार इति । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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