SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् पदार्थ --- से किं तं निकखेधे ? ) निक्षेप किसे कहते हैं ? (निखेव) जिन पदार्था' का स्वरूप निक्षेप द्वारा वर्णन किया जाय उसे निक्षप कहते हैं. और वह (तिविहे पएणते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि -(ोहनिफरणे) ओघनिष्पन्न (नामनिप्फरणे) नामनिष्पन्न और (मुत्तालावगनिष्फरणे ।) सूत्रालारकनिष्पन्न (से किं तं श्रोहणिप्फरणे ? ) श्रोधनिष्पन्न किसे कहते हैं ? श्रोह निकरणो) जो सामान्यतया अध्ययनादि श्रुत के नाम से निष्पन्न हुए हों उसे अोघनिष्पन्न निक्षप कहते हैं, और वह ( चउबिहे पण्णत्ते, ) चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(अ.ज्झयगणे ) अध्ययन ( *अझीगणे ) अक्षीण (ग्राप) आय - लाभ, (खवणा) क्षपणा। (से किं तं श्रझयो ? ) अध्ययन किसको कहते है ? ( अझयणे ) अध्ययन (चउबिहे पण्णत्ते,) चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा) जैसे कि(णामज्झयणे) नामाध्ययन (ठवणज्झयणे) स्थापनाऽध्ययन (दव्यझयणे) द्रव्याध्ययन (भावज्झयणे ।) भावाध्ययन । ( णामटवणाग्रो ) नाम और स्थापना (पुवं वरिणाश्रो, ) पूर्व वर्णन की गई हैं। (से किं तं दव्यज्झयणे ? ) द्रव्याध्ययन किसको कहते हैं ? (दबझयण) द्रव्या ध्ययन (दुविहे पएणत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि(श्रागमओ ) आगम से और (नोागमो अ) नोपागम से। (से किं तं नागमो दव्वझयणे ?) आगम से द्रव्याध्ययन किसे कहते हैं ? ( भागमश्रो दबज्झयणे ) आगम से द्रव्याध्ययन उसे कहते हैं कि--- ( जम्म णं ) जिसने (अज्झयणत्ति पयं) अध्ययन रूप पद को ( सिक्खिर) श्रादि से अन्त तक सोख लिया हो ( ठितं ) हृदयमें अवस्मरण रूप स्थिर कर लिया हो ( जितं ) आवृत्ति करते हुए * "अक्षीणशब्दम्य क्ष: खः क्वचित छझो" प्रा० । अ० ८ । पा० ७ । म० ३ । इत्यनेन क्षस्य खो भवति क्वचित् छझावपि । ये चारों नाम सामायिकादि चतुर्विशतिम्तवविशेषों के हैं । विशेष वर्णन आगे दिया गया है। * श्रादित प्रारभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं तच्छिक्षितमुच्यते । स्थितं-अविस्मग्गाश्चेतप्ति स्थित स्थितत्वात स्थितमप्रच्युतमित्यर्थः । जितं-परावर्तनं कुर्वता परेण वा क्वरिष्टम्य यच्छ घमागच्छति तजितम् । विज्ञातश्लोकपदवर्णादिसंख्यां मितम परिजितम-परि समन्तात्सर्वप्रकानितं परिजितं परावर्तनं कुर्वतो यत्रमेणोत्व मेण वा समागच्छति । अनुपयुक्त होनेसे व्याध्ययन एक ही होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy