SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] २४५ युक्त असंख्येयक होता है, और एक श्रावलिका के समय भी इतने ही प्रमाण में हो ते हैं । फिर यावत्पर्यन्त उत्कृष्ट स्थानक प्राप्त नहीं हुआ तावत्पर्यन्त मध्यम स्थानक ही होते हैं, और यदि जघन्य युक्त असंख्येयक के साथ एक श्रावलिका के समयों की राशि को परस्पर गुणा किया जाय तब फिर उसमें से एक रूप न्यून करने से जघन्य युक्त असंख्येयक होता है। अथवाजघन्य असंख्येयक असंख्येयक में से एक रूप न्यून करदें तब उस्कृष्ट युक्त असंख्येयक होता है, जघन्य युक्त असंख्येयक के साथ श्रावलिका के समयों को परस्पर गुणा किया जाय तब जो प्रतिपूर्ण राशि हो उसे ही जघन्य असंख्येयासंख्येयक कहते हैं, अथवा उत्कृष्ट यक्त असंख्येयक में यदि एक रूप प्रक्षेप करें तब भी जघन्य असंख्येयासंख्येयक ही होता है । तथा-जहां तक उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय न हो वहां तक मध्यम असंख्येयासंख्येयक होता है। यदि जघन्य असंख्येयासंख्येयक की राशि को परस्पर गुणा करके फिर उसमें से एक रूप न्यून कर दिया जाय तब उत्कृष्ट असंख यासंख्येयक होता है, अथवा जघन्य परीत अनन्त में से यदि एक रूप न्यून कर दिया तब भी उत्कृष्ट असं. ख्येया संख्येयक होता है। तथा-किसी २ श्राचार्य का ऐसा मत है कि--जी असंख्येयक २ गशि है उसी का वर्ग करना , फिर उस वर्ग की जितनी राशि श्रावे उसका भी फिर वर्ग करना, पुनः उस वर्ग की जो राशि आवे उसका भी वर्ग करना । इस तरह तीन वर्ग करके फिर उस वर्ग की राशि में दश असंख्येयक राशि प्रक्षेप करने चाहिये। जैसे कि "लोगागासपएसा, धम्माधम्मेगजीवदेसा य। दव्वटिया निरोश्रा, पत्तेत्रा चेव बोद्धव्वा ॥१॥ ठिइबंधज्भवसाणा, अणुभागा जोगच्छेअपलिभागा। दोण्ह य समाण समया असंखपक्खेवया दस उ ॥२॥" लोकाकाश के प्रदेश १, धर्म के प्रदेश २, अधर्म के प्रदेश ३, एक जीव के प्रदेश ४, द्रव्यार्थिक निगोद-सूक्ष्म साधारण वनस्पति के शरीर ५, अनन्तकाय को छोड़कर शेष प्रत्येक कायिक पांचों जातियों के जीव ६, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्धन के असंख्येयक अध्यवसायों के स्थानक ७, अध्यव. सायों का विशेष उत्पन्न करने वाला असंख्यात लोकाकाश की राशि प्रमाण अनुभाग ८, योग प्रतिभाग ६, और दोनों कालों के समय १०, जब ये दश प्रक्षेप For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy