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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४६ [श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] कर दिये जायं तब फिर उस राशि का तीन वार वर्ग करना चाहिये । फिर उन में से एक कप न्यून करने से उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येयक होता है। योग प्रतिभाग उसे कहते हैं जो मन वचन काया के योग हैं। उनका केवली द्वारा कल्पित प्रतिभाग रूप जो एक अंश है उसी को योग प्रतिभाग कहते हैं। स्थिति बन्धन करने वाले अध्यवसाय प्रत्येक २ असंख्येयक होते हैं, इस लिये वे ग्रहण किये गये हैं । इस प्रकार असंख्यातों का वर्णन किया गया। अब अनन्त का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है अनन्त के भेद। जहएणयं परित्ताणतयं केवइयं होइ ? जहएणयं असंखेज्जासंखेजयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहएणयं परित्ताणतयं होइ, महवा उक्कोसए असंखेजा. संखेजए रूवं पक्खित्तं जहएणयं परित्ताणतयं होई. तेण परं अजहएणमणुक्कोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसए परित्ताणतयं रा पोवई। उक्कोसयं परित्ताणतयं केवइयं होइ ? जहण्णयपरि तागतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो रूवूणो उक्कोसयं परित्तोणंतय होइ. अहवा जहएणय जुत्ताणतय रूवूर्ण उस्कोसयौं परित्ताणतय होइ । ___ जहण्णय जुत्ताणतयं केवइयं होइ ? जहएणयपरि. ताणतयमेत्ताणं रासीणं अगणमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहएणय जुत्ताणतय होइ, अहवा उक्कोसए परित्ताणंतए रूवं पक्खिरं जहएणय जुत्ताणंतयं होइ, अभवसिद्धियावि तत्तिा होइ, तेण परं अजहएणमणुक्कोसयोइं ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयण पावइ । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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