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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A अर्थ 11 अनुवादक बाल उपनारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - पलिओवमे, सागरोवमे, ओसप्पिणी, उस्सप्पिणी, पोग्गल परिवहे, अतीतडा, अणागतद्धा, सवडा. से तं पुव्वाणुपुत्री, से किंतं पच्छाणुपुची ? पछाणुपुन्वी ! सबदा, अणागतहा जाव समए. से तं पच्छ अपनी से कि तं अणाणपन्नी? अणाणपुल्वी एयाएचेव एगइयाए एगुत्तरियाए अणलगायाए सेढीर अण्णमण्णम्भ भासोदुरूवूणो. से तं अणाणुपुन्वी // 87 // अहवा उवणिड़िया कालाणुपुल्वी 00000 इतनी संख्या होती है. यहां तक संख्यात कहे जाते हैं संख्यात वर्ष का पल्योपम, दक्ष में कोटाक्रोड पल्योपम का एक सागरोपम, दश फ्रोहाक्रोड सामरोपम का एक उत्सर्पिणी काळ, दश क्रोडाकड सागरोपम का एक अवसर्पिनी काल. बीस क्रोराक्रोड गोरा काला चक, अनंत काल चक्र का एक पुद्गल परावर्त, अनंत पुद्गल परावर्त का अतात काल, अनंत पुद्गल परावर्त का अनागत काल, नंत अतीत काल, अनंत अनागत काल का सर्व क ल. यह पूर्वानुपूर्वी हुई अहो भगवन् ! पच्छानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो विष्य ! पच्छनपूर्वी में सब काऊ, मगगत काल यावत् एक समय पर्यत की गिनती करना. यह पच्छानी का कथन हुआ. ओ भगवन् ! अनानुपर्छ किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! अनानुपूर्वी में एक से लेकर एक 2 का उसर अन्योन्याभ्यास करते जो संख्या आवे उस में से आदि अंत का छोडकर शेष रहे सो अनानपूर्वी // 87 // अथवा अनुपनिधिका कालानुपूर्वी के *प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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