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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधा ॥८४७॥ विना ध्यान करे छे, मनने अनुकलमां राग नथी तेम प्रतिकूलमा द्वेष नथी. तथा ज्ञानआवरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, ए| सूत्रम् &चार कर्म विद्यमान होवाथी छमस्थ हता, तो पण तेमणे विविध संयमना अनुष्ठानमा पराक्रम बतावीने कषाय विगेरे प्रमादने । एकवार पण न कर्यो, (१५) तथा पोते पोताना आत्माथी तत्वने जाणीने संसार स्वभाव जाणनारा भगवान स्वयंबुद्ध बनी तीर्थ PIC४७॥ प्रवर्तन करवा उद्यम को. कधुं छे के: आदित्यादिर्विवुधविसरः सारमस्यां त्रिलोक्या-मास्कन्दन्तं पदमनुपमं यच्छिवं त्वामुवाच ॥ तीर्थ नाथो लघुभवभयच्छेदि तूर्ण विधत्स्वे-त्येतद्वाक्य त्वदधिगतये नो किमु स्यान्नियोगः ? ॥१॥ आदित्य विगेरे विबुधोनो समूह (नव लोकांकित देवो) छे, तेमणे तेमने कडं के हे नाथ ! आ त्रण लोकमां साररूप अनुपम जे शीघ्र भवोना भय छेदनार अने शिवपद आपनार तीर्थ (जैन शासन) छे. तेमने शीघ्र स्थापन करो! आ प्रमाणे | आयु वाक्य तमारी स्मृति माटे काने न पडथु होत, तो आ नियोग केवी रीते थात ? तथा तीर्थ प्रवर्तन माटे केवी रीते भगवाने उद्यम कर्यो ते बतावे छे:| आत्म शुद्धिवडे एटले पोतानां कर्मनो क्षय उपशम तथा क्षय करवावडे सुपणिहित मन वचन कायाना योगो जे आयत योग छे, तेमने निर्मळ करी तथा विषय कषायो विगेरेने उपशम विगेरेथी दूर करवाथी ठंडी गुण प्राप्त करेला (शांत) भगवान छे. तथा माया रहित तेज प्रमाणे क्रोध मान लोभ रहित बनी जीवतां मुधी पांच समितिए समित ( उपयोग राखी वर्तन करनारा ) तथा त्रण गुप्तिथी गुप्त बनीने रह्या हता. (१६) For Private and Personal Use Only
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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