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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८४६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aist रसिक अरसिक गमे तेवो पिंड मळे तो पण रागद्वेष छोडीने वापरता द्रविक (संयमवाळा ) भगवान विचरे हे एटले जो पुरी अथवा सारी गोचरी मळी होय तो अहंकारी थता नथी, तथा न मळतां ओछी मळतां खराब मळतां पोते पोतानी के आपनार गृहस्थनी निंदा करता नथी, (१३) पण तेवो आहार मळतां खाइने अने न मळतां भूख्या रहीने पण सारुं ध्यान महावीर प्रभु करे छे केवी अवस्थामा रहीने ध्यान करे छे, ते बतावे छे. उत्कुटुक गोदोहिक वीरासन विगेरे आसन धारीने मुख विगेरेनी चंचळ चेष्टाने छोडीने धर्म ध्यान के शुक्ल ध्यान ध्याये छे. प्र० - त्यां शुं ध्येयने भगवान धारे छे ? ते कहे छे. उंचे, नीचे तथा तीरच्छा लोकमां जे परमाणु तथा जीव विगेरे विद्यमान छे, तेने द्रव्य पर्याय नित्य अनित्य विगेरे रूपपणे ध्यावे छे. तथा अंतःकरणनी पवित्र समाधिने देखता प्रतिज्ञा रहित बनीने ध्यान करे छे. (१४) अकसाई विगयगेही य सदरूवेसु अमुच्छिए झाई । छउमत्थोऽवि परकममाणो; न पमायं सईपि कुवित्था ॥१५॥ सयमेव अभिसमागम्म, आयएजोगमायसोहीए । अभिनिव्वुडे अमाइल्ले, आवकहं भगवं समियासी ॥ १६ ॥ एस विहि अणुक्कंतो, माहणेण मईमया । बहुसो अपडिनेण, भगवया एवं रिति ॥१७॥ तिमि ९-४ ब्रह्मचर्यश्रुतस्कंधे नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः कषाय रहित ( क्रोध विगेरेथी पांपण विगेरे चडाव्या विना ) तथा गृद्ध पशुं दूर करीने तथा शब्द विगेरेमां मूर्च्छा राख्या For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ८४६ ॥
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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