SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥८०९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण पहेला अन्तर्मुहुर्त्तमां विशुद्ध मान बनीने त्रण करण करे छे, ते प्रत्येक अंतर्मुहूर्त्तना छे. ते कहे छे - (१) यथा मट्टा (२) अपूर्व (३) अनितिकरण छे - अथवा चोथी उपशांतथी थाय छे. तेमां यथा प्रवृत्त करणमां दरेक समये अनंत गुण वृद्धिवाळी विशुद्धिने अनुभवे छे. तेमां स्थिति घात, रसघात, गुण श्रेणि, गुण सङ्क्रमण आमांथी कोइ पण होतुं नथी तेज प्रमाणे बीजा अपूर्वकरणमां छे. तेनो परमार्थ कहे छे के तेमां अपूर्व अपूर्व क्रियाने मेळवे छे. तेथी अपूर्वे करण छे. तेमां प्रथम समयेज स्थिति घात रस घात गुणश्रेणि गुण सङ्क्रमण अने अन्य स्थिति बन्ध ए पांच पण अधिकार साथै पूर्वे न होता, अने हवे छे, तेथी अपूर्व करण छे. ते प्रमाणे अनिवृत्तिकरणमां अन्य अन्यने परिणामो उल्लंघता नथी. माटे ते अनिवृत्ति करण छे. एनो सार आछे के पहेले समये जे जीवोए आकरण फरस्यो ते बधामां तुल्य परिणाम छे. ए प्रमाणे बीजा समयोमां पण जाणवुं. अहया पण पूर्वे बतावेला स्थितिघात विगेरे पांचे पण अधिकार साथै बर्ते छे. तेथीज आ त्रण करणवडे उपर बतावेला क्रमवडे अनंतानुबंधीना कषायोने उपशमावे छे. उपशमनुं वर्णन. – जेम धूळ पाणीथी छांटीने लाकडाना थाळावडे कुवो करतां चोंटी जवाथी वायु विगेरेथी उडाडवा छतां ते 'धूळ उडती नथी, तेम कर्म धूळ पण विशुद्धि भावरुप पाणीवडे भिंजाबी अनिवृत्ति करण थाळावडे हणतां कर्मरज शांत धावी उदय उदीरण सङ्क्रम निघत निकाचनारूप करणाने अयोग्य थाय छे. (चीकणो कर्म बंध न थाय) तेमां पण प्रथम समये कर्मदलिक थोड उपशांत थाय. अने बीजा तीजा विगेरे समयमां असंख्येय गुण वृद्धिए उपशमता अंतर्मुहूर्त्तमां वधुं शांत थाय छे. आ प्रमाणे एक मतवडे अनन्तानुबन्धीनो उपशम बताव्यो. बीजा आचार्योनो मतभेद - अनंतानुबन्धीनी विसंयोजना बतावे छे, तेमां क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवो चार गतिमां रहेला For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||८०९ ॥
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy