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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||૮૦૮|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाय छे. एटले वाकीना अगीयार भेदमां पण आ जाणवु' तथा 'धूनन' ते भिन्न ग्रन्थिवाळाने अनिवृत्तिकरणवडे सम्यक्त्रमा रहेनुं, तथा 'नाशन' कर्म प्रकृतिनुं स्तिबुक सङ्क्रमणवडे एक प्रकृतिनुं बीजी प्रकृतिमां सङ्क्रमण थत्रु', 'विनाशन' शैलेशी अवस्थमां सम्पूर्णताथी कर्मनो अभाव करवो, 'ध्यापन' उपशमश्रेणिमां कर्मनुं उदयमां न आववु, क्षपण ते अपत्यख्यानादि क्रमवडे क्षपकश्रेणिमां मोह विगेरेनो अभाव करवो, शुद्धिकर- अनंतानुबन्धीना क्षयना प्रक्रमयी क्षायिक सम्यक्त्व मेळववु, 'छेदन' उत्तरोत्तर शुभ अध्यसायमा चडवाथी स्थितिनी ओछाश करवी, 'भेदन' ते बादर संपराय अवस्थामां संज्वलनना लोभना खंड खंड करी नाखवा, (फेडण ) त्ति - चौठाणीआ रसवाळी अशुभ प्रकृतिने ऋण रसवाळी विगेरे बनाववी. 'दहन' ते केवलीसमुद्घातरुप ध्यान अग्निवडे वेदनीयकर्मनुं राखतुल्य बनाववु, अने बाकीना कर्म वळेलां दोरडा माफक बनाव, 'घावन' ते शुभ अध्यवसायथी मिथ्यात्व पुगलोनुं सम्यक्त्वभावे बनाव, आ वधी कर्मनी अवस्थाओ माये उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी केवलि समुद्यात शैलेशी अवस्था प्रकट करवाथी प्रभूत रीते प्रकट थाय छे, [आत्मा निर्मळ करवा कराय छे] एटला माटे प्रक्रमाय (आरंभाय) छे, तेमां उपशमश्रेणीमा प्रथमज अनंतानुबन्धीओनी उपशमनी कहेवाय छे. अहीं असंयतसम्यग्दृष्टि देशविरति प्रमत्त अप्रमत्तमांथी कोइ पण बीजा योगमां जतां आरंभक होय छे, तेमां दर्शन सप्तक एकवडे उपशमाय छे, ते कहे छे. अनंतानुबन्धी चोकडी, उपरनीत्रण लेश्यामां विशुद्ध होवाथी साकार उपयोगवाळो अंतःकोटीकोटी स्थितिनी सत्तावाळो परिवर्तन थती शुभ प्रकृतिओनेज बांधतो प्रति समये अशुभ प्रकृतिओना अनुभागने अनंतगुण हानीए ओछी करतो शुभ प्रकृतिओने अनन्त गुण वृद्धिए अनुभाग (रस) मां व्यवस्था करतो पल्योपमना असंख्य भाग हीन उत्तरोत्तर स्थितिबन्ध करतो करण कालथी For Private and Personal Use Only सूत्रम् [૮૮ના
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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