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[ आचाराङ्ग-सूत्र
भावार्थ - जो दीर्घकाय (वनस्पति) के शस्त्ररूप अग्नि के स्वरूप को जानता है वही संयम को जानता है । जो संयम के रहस्य का वेत्ता है वही अग्निकाय के रहस्य का ज्ञता
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विवेचन - उपर के सूत्र में आये हुए "दीहलोग" शब्द से वनस्पति अर्थ लिया जाता है क्योंकि यह वनस्पति काया की स्थिति, शरीर की अवगाहना आदि की अपेक्षा शेष एकेन्द्रिय जीवों से दीर्घ है इसलिये इसे दीर्घलोक कहा गया है। वनस्पति का शस्त्र अग्नि है क्योंकि अग्नि की ज्वालाएँ जब बढ़ती हैं। तो क्षण में ही बड़े बड़े वृक्षों को जला देती हैं। इसलिए अग्नि वनस्पति का शस्त्र है। यह प्रश्न होता है कि सूत्रकार ने सर्वलोक प्रसिद्ध अनि शब्द न देकर दीर्घ लोकसत्थ शब्द क्यों दिया ? आचार्य फरमाते हैं कि यहां दीर्घलोकसत्थ शब्द देकर सूत्रकार कुछ विशेषता प्रकट करना चाहते हैं । वह यह है कि अभि जाज्यल्यमान होने पर सभी प्राणियों का विनाश करने वाली हो जाती है। बड़े २ वृक्षों को जलाती हुई तदाश्रित कीड़े, पिपीलिका, भ्रमर, पक्षी के बच्चे आदि आदि त्रस जीवों को, साथ ही वृक्ष के कोटर में रही पृथ्वीकाय को, श्रोसरूप काय को, वृक्ष के अल्प हिलने से प्रकट हुई वायु को इत्यादि सर्व प्राणी समूह को नष्ट करने वाली है । यह भाव प्रकट करने के लिये 'दीर्घ लोकसत्य' शब्द का सूत्रकार ने प्रयोग किया है ।
अग्नि के आरम्भ को अत्यन्त भयंकर, दश दिशाओं में जलाने वाला, सर्वत्र धार वाला और अत्यन्त सर्वभूत पीड़ाकारी जानकर हिंसक को सर्वथा त्याग करना चाहिये। जो अनिकाय के इस भयंकर रहस्य को जानता है वही संयम के रहस्य को जान सकता है। जो संयम के स्वरूप को जानता है वही अभि के आरम्भ की भयंकरता जान सकता है। यह बताने का सूत्रकार का आशय यह है कि अहिंसा और संयम परस्पर पोष्यपोषक सम्बन्ध वाले हैं। असंयमी कभी हिंसक नहीं रह सकता है और हिंसक कभी संयमी नहीं बन सकता है। जो अहिंसक है वही संयम के रहस्य को जानता है और जो इन्द्रियसंयम, मनःसंयम और वाणी संयम कर सकता है वही अहिंसा का आराधक हो सकता है ।
वीरेहिं एवं अभिभूय दिनं संजतेहिं सया अप्पमत्तेहिं (३१)
संस्कृतच्छाया — वीरैरेतदभिभूय दृष्टं संयतैः सदाऽप्रमत्तैः
शब्दार्थ — संजतेर्हि=जितेन्द्रिय । सया अप्पमत्तेर्हि=हमेशा जागृत रहने वाले। वीरेहिं= वीर महापुरुषों ने । एयं =यह तत्त्व | अभिभूय = कर्म एवं परिषहों को जीतकर । दिट्ठ-केवलज्ञान द्वारा देखा है ।
भावार्थ --- सदा जितेन्द्रिय, सदा अप्रमत्त और संयमी वीर महापुरुषों ने, कर्मशत्रु और परिषहों पर श्रात्मबल द्वारा विजय प्राप्त करके केवलज्ञान द्वारा, यह अनन्त मोक्ष सुख का साक्षात्कार कराने वाला उपरोक्त अहिंसा और संयम का अनुपमतत्व प्राप्त करके मुमुक्षुत्रों के हितार्थ प्ररूपित किया है ।
विवेचन - इस सूत्र में यह बताया गया है कि जो सदा जागृत रहता है और जागृत होकर संयम का पालन करता है वह शीघ्रातिशीघ्र परमतत्त्वों को पा जाता है । प्रत्येक कार्य की सिद्धि के लिये प्रमत्तावस्था (जागृति) प्रथम आवश्यक है। जागृति के अनन्तर संयमपालन अत्यधिक सरल और
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