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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्ययन चतुर्थोद्देशक: ] [ ६३ यथार्थ फलदायी हो जाता है । महापुरुषों ने अपने दीर्घ तपश्चरण के फलस्वरूप प्रकट होने वाले अपने अनुभवरूपी रसायनों का दान मुमुक्षुओं को किया है। इन अमृतोपस रसायनों को क्रमशः सेवन करने से अनन्त जीवों ने निराबाध आरोग्य प्राप्त किया है। ये रसायन स्वयं अमर हैं और अपने सेवन करने वालों को भी अमृत के समान अमर बना देते हैं। जे पत्ते गुट्टिए से हु दंडे पचति । तं परिणाय मेहावी, इयाणिं णो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं (३२) संस्कृतछाया— - यः प्रमत्तः गुणार्थी स दण्डः प्रोच्यते । तत् परिज्ञाय मेधावी, इदानीं नो यदहं पूर्वका प्रमादेन । शब्दार्थ — जे=जो | पमत्ते=पांच प्रमादों से असंयत है । गुणट्ठिए-इन्द्रिय सुखों का अभिलाषी है। सेहु वह निश्चय से । दंडे = प्राणियों को दण्ड देने के कारण जुल्मकार | प्रबुच्चति = कहा जाता है। तं परिण्णाय = यह जानकर | मेहावी = बुद्धिमान् । इया=ि अब । गो= नहीं करूंगा। जमहं=जो मैंने । पुव्वमकासी = पहिले किया । पमाएणं प्रमाद से | भावार्थ - जो पांच प्रमादों से प्रमत्त है, जो इन्द्रियसुखों का अभिलाषी है वह प्राणी-हिंसा करके उन्हें दण्ड देता है इसलिए वह जुल्मी और अन्यायी कहा जाता है । यह जानकर बुद्धिमान् आत्मचिन्तन करता है कि मैंने प्रमाद से जो हिंसादि कार्य किये हैं उन्हें पुनः भविष्य में नहीं करूँगा । विवेचन - जो मद, विषय, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से प्रमत्त है, जो इन्द्रियजन्य सुखों भी है वह निरपराधी प्राणियों को दण्ड देता है इसलिये शास्त्रकार ने उसे दंड हेतु होने से जुल्मी कहा है । जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं वह इसी संज्ञा के योग्य हैं अर्थात् वह जुल्म करने वाला नहीं तो क्या है ? गहरी दृष्टि से विचारने पर यह प्रतीत होता है कि जो प्राणियों को दण्ड देता है वह स्वयं दण्डाता है। जो दूसरों को पीड़ा देता है वह स्वयं पीड़ाता है, जो दूसरों को मारता है। वह स्वयं मरता है । अर्थात् मदादि प्रमाद आत्मा के लिए हलाहल जहर रूप हैं। उनसे शांति की शा करना सर्पमुख से अमृत करने की आशा के समान है अतः इनसे सदा बचना चाहिये । लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मोति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं गणिकम्मसमारंभेणं श्रगणिसत्यं समारंभमाणे रणे अगरूवे पाणे विहिंसति (३३) संस्कृतच्छाया –—–—लज्जमानान्पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैः अग्निकर्मसमारम्भणे अग्निशस्त्रं समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनः हिनस्ति । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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