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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्ययन चतुर्थोद्देशक: ] [ ६१ • जिन प्रमाणों से श्रात्म सामान्य की सिद्धि होती है वे हो प्रमाण अग्नि को भी सचेतन सिद्ध करते हैं अतः आत्मसामान्य की तरह अग्नि को भी श्रात्म विशेष मानना चाहिये । अग्नि को सचेतन सिद्ध करने वाले अनेकों प्रमाण हैं। जैसे-- प्रकाश करने वाले जुगनू (खद्योत) का शरीर सचेतन है इसी तरह प्रकाश करने वाले अग्निकाय का शरीर भी सचेतन है । ज्वर की उष्णता भी जीवसंयुक्त शरीर में ही होती है मृतशरीर में कभी ज्वर की उपता नहीं पायी जाती है अतः अग्नि की स्वाभाविक उष्णता उसके सचेतन को प्रकट करती है । अव अनुमान द्वारा अग्नि की सजीवता सिद्ध करते हैं - अंगार आदि का प्रकाश श्रात्मसंयोग पूर्वक हैं क्योंकि वह शरीरस्थ है, जैसे जुगनू का देह परिणाम अर्थात् जैसे जुगनू का शरीर विशिष्ट प्रकाश युत है तो उसमें आम द्रव्य का संयोग है इसी तरह अग्नि का शरीर भी विशिष्ट प्रकाश वाला है अतः यह प्रकाश आत्मसंयोग के बिना नहीं हो सकता। इसी तरह अंगारादि की गर्मी ात्म प्रयोग पूर्वक है क्योंकि वह शरीरस्थ है - जो जो शरीरस्थ गर्मी है वह आत्मा बिना नहीं हो सकती जैसे ज्वर की गर्मी । यह उष्णच ही अभि को सचेतन सिद्ध करता है । अनि सचेतन है, क्योंकि यह यथायोग्य आहार देने से बढ़ती है और नहीं देने से घटती है-जैसे पुरुष यथायोग्य आहार करने से पुष्ट होता है और आहार नहीं करने से कमजोर होता है और वह चेतन है । अनि भी घृत ईन्धनादि देने से बढ़ती है और यथायोग्य ईन्धनादि आहार नहीं देने से कम होती है अतः वह भी सचेतन है । यह शंका भी नहीं करनी चाहिये कि उष्णता में जीव कैसे रह सकते हैं। क्योंकि यह बात तथा रूप शरीर प्रकृति पर निर्भर करती है । प्रत्येक प्राणी के शरीर की विशेष प्रकृति होती है । अभिकाय के जीवों की शारीरिक प्रकृति ऐसी ही है कि वे अग्नि में ही रहते हैं । जैसे मारवाड़ के रेगिस्थान में, ज्येष्ठ मास की भयंकर गर्मी और सूर्य के मध्याह्न समय के प्रचण्ड ताप से आाग के समान गरम बनी हुई रेत में वहां उत्पन्न होने वाले चूहे आदि प्राणी आनन्द से रहते हैं । अर्थात् उनकी शारीरिक प्रकृति उसी वातावरण के अनुकूल होती है यही बात श्रमि के जीवों के सम्बन्ध में भी समझ लेनी चाहिये । इन सभी लक्षणों द्वारा अनि में चेतनता के चिह्न पाये जाते हैं अतः तेउकाय भी सचित्त है । इसमें किसी प्रकार शंका को स्थान ही नहीं है । उस पर भी जो शंकाशील हैं वे अपने अतिव में भी शंकाशील हैं । जब आत्मा का ही अपलाप किया जाता है तो धर्म, पुण्य, पाप, कत्र्त्तव्य और कर्त्तव्य रहते ही कहाँ हैं । 'छिन्ने मूले कुतः शाखा' । धर्माधर्म, पुण्य, पाप में अश्रद्धा होने से प्राणी भयंकर से भयंकर पाप करने से भी नहीं चूकता। वह मानव से दानव बन जाता है। अतः आत्मा धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप आदि के अस्तित्व को समझकर विकास मार्ग पर बढ़ते रहना चाहिये । जे दीहलोगसत्थस्स खेयन्ने, से असत्थस्स खेयन्ने, जे असत्थस्स खेयन्ने से दीहलोगसत्थस्स खेयन्ने (३०) संस्कृतच्छाया - यो दीर्घलोकशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः ( खेदज्ञः ) सोऽशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः, योऽशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः स दीर्घलोक शस्त्रस्य खेदज्ञः । शब्दार्थ - जे = जो । दीहलोग सत्थस्स=अनिकाय के स्वरूप को । खेयन्ने-जानने वाला है | से वह । असत्थस्स - संयम का । खेयने-जानने वाला है । जे असत्थस्स खेय ने जो संयम को जानने वाला है | से बह । दीहलोगसत्यस्स खेय ने निकाय के स्वरूप को जानता है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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