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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्ययन तृतीय उद्देशकः ] नैवान्यरुदकशस्त्र समारम्भयेत्, उदकशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् । यस्यैते उदकशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमि । शब्दार्थ-एत्थ अप्काय में । सत्थं समारभमाणस्स-शस्त्र का प्रयोग करने वाले को इच्चेए ये पूर्वोक्त । प्रारम्भा-हिंसादि क्रियाएँ । अपरिगणाया कर्मबन्धन की कारण रूप ज्ञात नहीं । भवन्ति होती हैं । एत्थ अकाय में, सत्थं असमारभमाणस्स-शस्त्र का प्रयोग नहीं करने वाले को । इच्चेते ये पूर्वोक्त । आरंभा हिंसादि क्रियाएँ । परिणाया भवंति कर्म बन्धन की कारण रूप ज्ञात होती हैं । तं परिण्णाय यह जानकर । मेहावी-बुद्धिमान् पुरुष । णेव सयं उदयसत्थं समारंभेजा-स्वयं अप्काय शस्त्र का प्रयोग न करे। णेवएणेहिं उदयसत्थं समारंभावेजा-न दूसरों से अप्काय शस्त्र का प्रयोग करावे । उदयसत्थं समारंभंते वि एणे ण समणुजाणेज्जा= अप्काय शस्त्र का प्रयोग करते हुए अन्य को अच्छा न समझे । जस्सेते-जिसको ये । उदयसत्थसमारम्मा अप्काय की हिंसा । परिगणाया भवंति कर्मबन्धन रूप से ज्ञात होती है । से हु-वही निश्चय से । पुणी परिषणायकम्मे विवेक-सम्पन्न मुनि है । त्ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-जो अज्ञानी एवं हिंसकवृत्ति वाले हैं वे हिंसा करते हुए भी हिंसक क्रिया के भान से रहित होते हैं और जो अहिंसकवृत्ति वाले हैं वे प्रारम्भ के फल को जानकर हिंसादि प्रारम्भ नहीं करते हैं । यह जानकर बुद्धिमान् पुरुष स्वयं अप्काय की हिंसा न करे, अन्य से न करावे और करते हुए को अनुमोदन न दे । इस प्रकार अप्काय के प्रारंभ को अहितकर जानकर जो श्रमण उसका त्याग करते हैं वे ही परिज्ञासम्पन्न (विवेकी) मुनि कहे जाते हैं। ऐसा श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है सो हे जम्बू ! मैं तुझे कहता हूँ। ___ इति तृतीयोद्देशकः For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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