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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८ ] [आचाराङ्ग-सूत्रम् अप्काय की हिंसा करते हैं । एत्थ वि तेसिं-उनका यह कथन भी । नो-निकरणाए निश्चय करने में समर्थ नहीं है। भावार्थ-अन्य मतावलम्बी कहते हैं कि हमारे आगमों में जल को अचेतन मानकर उसको ग्रहण करने का निषेध नहीं है इसलिए पीने के लिये अथवा स्नानादि शोभा के लिये जल का उपयोग करना हमें कल्पता है। ऐसा कहकर वे अप्काय का विविध शस्त्रों से छेदन भेदन करते हैं परन्तु उनका यह कथन और उनके आगम निश्चय करने में समर्थ नहीं हैं। विवेचन-जल का प्रारम्भ करने वालों को जब पूछा जाता है कि तुम यह प्रारम्भ क्यों करते हो? तो वे कहते हैं कि हमारे आगमों में ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि पीने और विभूषा के लिए यतियों को जल कल्पता है । जैसे-आजीविक पन्थी और भस्मस्नायी कहते हैं कि जल पीना कल्पता है, विभूषा करना नहीं । शाक्य और परिव्राजक वगैरह स्नान के लिये, पीने के लिए जल ग्रहण करना कल्पनीय मानते हैं परन्तु आचार्य फरमाते हैं कि उनका कथन और उनके माने हुए आगम दोनों ही युक्तियों द्वारा खंडित होते हैं अतः वे निश्चय करने में समर्थ नहीं हैं । पहिले अकाय में जीव है यह युक्तियों द्वारा सिद्ध किया जा चुका है अतः अप्काय को सचित्त नहीं मानना अज्ञानता का द्योतक है। उनका आगम ऐसा विधान करता है तो वह आगम अप्रमाण है क्योंकि उनका कर्त्ता प्राप्त नहीं है। अगर प्राप्त कर्ता हो तो अप्काय की चेतनता का निषेध नहीं कर सकता । अनाप्त प्रणीत आगम अप्रमाण ही है। विभूषा के लिये समारम्भ करना त्यागियों के लिये अनुपयुक्त है । क्योंकि स्नानादि विभूषा त्यागियों के लिए सर्वथा वर्जनीय है। कहा भी है: स्नानं मददपकरं कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य नैव स्नान्ति दमे रताः ॥१॥ अर्थात्-स्नान करना यह मद और अहंकार का कारण है । कामभोग का प्रथम अंग है इसलिये काम का त्याग करने वाले जितेन्द्रिय संयमी स्नान का सर्वथा त्याग करते हैं । शौच के लिये भी जल अनिवार्य नहीं है। क्योंकि अाभ्यन्तर शुद्धि जल से नहीं हो सकती है। बाह्य शुद्धि से त्यागियों को क्या प्रयोजन ? उपरोक्त कारणों से यह सिद्ध होता है कि जल सचेतन है अतएव त्यागियों को सर्वथा उसका संयम करना चाहिये और अचित्त शस्त्रपरिणत जल का उपयोग जीवननिर्वाह के लिये, करना चाहिये। एत्थ सत्यं समारभमाणस्स इचते प्रारंभा अपरिगणाया भवन्ति । एत्थ सत्यं असमारभमाणस्स इचेतेश्रारम्भा परिणाया भवंति। तं परिणाय मेहावी व सयं उदयसत्थं समारंभेज्जा, वन्नेहिं उदयसत्थं समारंभावेज्जा, उदयसत्थं समारंभंतेवि अरणे न समणुजाणज्जा, जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ति बेमि (२८) संस्कृतच्छाया-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते प्रारम्भाः अपरिज्ञाताः भवन्ति । अत्र शस्त्रम-- समारममाणस्य इत्येते आरम्भा परिज्ञाता भवन्ति । तत्परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयमुदकशस्त्रं समारभेत For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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