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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राकथन धन्य हैं वे मुमुक्षु-मधुकर जिन्होंने महामहिमामय महावीर के मुखारविन्द से झरते हुए मकरंद का साक्षात् पान किया ! और धन्य हैं वे भव्यात्मा नर-नारी जो परम्परागत वीतराग-वाणी का रसास्वादन करते हैं !! परम सौभाग्य है इस अकिञ्चन 'सौभाग्य' का, जिसे परम पावनी, कर्म-मल-नाशिनी, भव्यजन-मन-आह्लादिनी और सतत हितकारिणी वीतराग-वाणी की यत्किञ्चित् सेवा करने का पवित्रतम सुअवसर प्राप्त हुआ । मेरे जीवन की वह घड़ी सचमुच अनमोल थी, वह पल वस्तुतः बहुमूल्य था जिसमें मुझे पार्ष-बाणी की यथाशक्ति सेवा करने की पुण्य-प्रेरणा प्राप्त हुई। अस्तु ! जैन वाङ्मय में द्वादशाङ्गी का वही गौरवमय स्थान है जो वैदिक परम्परा में वेदों को प्राप्त है। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् महावीर ने अपनी कठोरतम साधना के फलस्वरूप जो अनुभव, जो ज्ञान का विमल आलोक, जो दिव्य प्रकाश और जो त्रिलोक-त्रिकालस्पर्शी रहस्य ज्ञान प्राप्त किया था वह उन्होंने जगत्कल्याण की उदात्त भावना से अपने वचनों के रूप में विश्व को प्रदान किया । वीतराग भगवान के श्रीमुख से निकली हुई अमृतमय वाणी को विशिष्ट-ज्ञानी गणधरों ने संकलित करके सूत्रों का रूप प्रदान किया । वही द्वादशाङ्गी के नाम से विख्यात है। आचाराङ्ग का स्थान और महत्त्व इस द्वादशाङ्गी में आचाराङ्ग का सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान है। इसीलिए द्वादशाङ्गी में सर्वप्रथम श्राचाराङ्ग का ही नाम निर्देश किया गया है। सब तीर्थकर तीर्थ-प्रवर्तन के प्रारम्भ में प्राचाराङ्ग का प्ररूपण करते हैं और बाद में शेष ग्यारह अङ्गों का । गणधरदेव भी इसी क्रम से उनका संकलन करते हैं। इससे आचारशास्त्र की महत्ता का स्वयमेव आभास हो जाता है। नियंक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामी ने "अंगाणं किं सारो ? आयारो" कहकर इस शास्त्र को समग्र द्वादशांगी का सार बतलाया है। इससे अधिक आचार-शास्त्र का और क्या महत्व हो सकता है ? दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आचारांग सकल जेन वाङ्मय का सिरमौर एवं चूडामणि है। आचारांग, अध्यात्म की अनमोल निधि है। यह जागृति का जीवन-सूत्र है। यह आभ्यन्तर गुण-रत्नों का रत्नाकर है । इसमें वह तेज, वह प्रकाश और वह प्रेरणा है जो बाह्य संसार की कृत्रिम एवं मायावी चमक-दमक को निरस्त कर आत्मिक अन्धकार को नष्ट करती है। आत्मा के मौलिक गुणों को विकसित और पल्लवित करने को इसमें विपुल सामग्री है। यह अध्यात्म का उच्चतम कोटि का ग्रन्थ है। यह बाह्याचार की अपेक्षा अन्तरंग तत्त्वों पर विशेष भार देने वालाग्रन्थरत्न है। यह पुरातन जैन संस्कृति का सूचन करने वाला प्रामाणिक एवं प्राचीनतम आधार है। आचाराङ्ग-परिचय आचारांग सूत्र दो विभागों में विभक्त है । जिन्हें 'श्रुतस्कन्ध' कहा जाता है । प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं जो "बंभचेरझयणाई' (ब्रह्मचर्याध्ययन) कहलाते हैं। इन नौ अध्ययन के ४४ उद्देशक हैं । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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