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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ] अध्ययन के अन्तर्गत विभाग को उद्देशक कहा जाता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्ययन हैं। उनमें मुख्यरूप से आहार, शय्या, वस्त्र, पात्र आदि के ग्रहण-अग्रहण सम्बन्धी विधि-निषेधात्मक बाह्य आचार का प्ररूपण किया गया है, जबकि प्रथम श्रुतस्कन्ध में तत्त्वज्ञान और अध्यात्म का तलस्पर्शी विवेचन है । इस ग्रंथ के अर्थरूप से प्रणेता तो स्वयं सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान महावीर देव हैं और सूत्ररूप की अपेक्षा श्रीमत् सुधर्मस्वामी हैं-जो भगवान् के पञ्चम गणधर थे और जिनकी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा अब तक अविच्छिन्नरूप से चली आ रही है। जिसके अर्थरूप प्रणेता स्वयं भगवान् हों और सूत्ररूप प्रणेता चार ज्ञान के स्वामी हों उसकी प्रामाणिकता के लिए शंका का अवकाश ही नहीं रह जाता है। परन्तु इस ग्रंथ का उत्तर भाग जो वर्तमान में उपलब्ध हो रहा है वह अपने मूलरूप में ही है या उसमें दुर्भिक्ष और काल-प्रवाह के कारण न्यूनाधिक्य हुआ है यह चर्चा एवं शोध का विषय बना हुआ है। पूर्वार्ध और उत्तरार्ध की रचना शैली, भाषा और विषय-प्रतिपादन में रही हुई भिन्नता के कारण विद्वद्वर्ग में इस सम्बन्धी ऊहापोह हो रहा है । तत्त्व केव लिगम्य है। इस ग्रंथ पर श्रीमद् भद्रबाहुस्वामी विरचित निर्यक्ति, प्राकृतभाषा निबद्ध चूर्णि, शीलातानार्य विरचितवृत्ति, अजितदेवकृत दीपिका आदि टीका ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। शीलावाचार्य अपनी टीका में गन्धहस्तिकृत शस्त्रपरिज्ञा विवरण का अत्यन्त गहन-ग्रन्थ के रूप में उल्लेख करते हैं। वह विवरण उपलब्ध नहीं हुआ। यूरोप महाखण्ड में प्रो. जेकोबी और शुबिंग के द्वारा इस ग्रन्थ का मूलपाठ और अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। भारतवर्ष में प्रागमोदय समिति की तरफ से सटीक संस्करण प्रकाशित हुआ है । इसके अतिरिक्त बाबू धनपतिसिंह बहादुर की तरफ से प्रकाशित संस्करण, पूज्य अमोलकऋषिजी म. कृत अनुवाद वाला संस्करण, संतबाल कृत गुजराती अनुवाद, राजकोट से प्रकाशित संस्करण श्रादि २ अब तक इस ग्रन्थ के कतिपय संस्करण प्रकट हुए हैं । विशिष्ट भाषा-शैली उपलब्ध जैन आगमों में प्राचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा और वाक्यपद्धति सबसे विलक्षण है । अन्य आगमों की भाषा और इसकी भाषा का भेद स्पष्ट दिखाई देता है । भाषा-विशेषज्ञों का यह अनुमान है कि इसकी भाषा अन्य जैन आगमों की भाषा की अपेक्षा प्राचीनतम है । आचाराङ्ग के प्राचीनतम पागम होने का उसकी भाषा भी प्रबलतम प्रमाण है। इसकी भाषा की यह लाक्षणिकता है कि इसमें बहुत छोटे-छोटे पद हैं पर अर्थ की दृष्टि से वे बहुत गम्भीर और विस्तृत हैं। प्राचाराङ्ग के पदों में सूत्र का लक्षण अधिक स्पष्ट रूप से पाया जाता है। कम से कम अक्षरों में अधिक से अधिक अर्थ को सूचित करने वाला 'सूत्र' कहा जाता है । सूत्र का यह लक्षण इसके पदों में विशेष रूप से पाया जाता है। देखने में छोटे लगने वाले इसके पद 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करते हैं। सूत्रकार ने बड़ी ही कुशलता के साथ सागर के समान विस्तृत अर्थ को छोटे २ पद रूपी गागर में समा देने का सफल प्रयत्न किया है। इसके अतिरिक्त इसकी भाषा में गद्य और पद्य का मिश्रण पाया जाता है। कहीं कहीं केवल गद्य है और थोड़े ही अन्तर से प्राचीन छोटे २ छन्दों में पद्य भी आ जाते हैं। कहीं केवल पद्य हैं और कहीं For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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