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करने वाला, आध्यात्मिकता को जागृत करने वाला, जीवन की विषम गुत्थियों को सुलझाने वाला और जीवन को सत्य धर्म की ओर ले जाने वाला प्रथम कोटि का ग्रंथरत्न है ।
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प्रसिद्ध वक्ता पं. सुनि श्री सौभाग्यमलजी म. ने, जब मैं श्री श्रमण जैन सिद्धान्तशाला, रतलाम में व्यापक के रूप में कार्य करता था, मेरे सामने श्राचाराङ्ग सूत्र का अनुवाद करने की अभिलाषा व्यक्त करते हुए इस कार्य में सहयोग देने के लिए मुझे पूछा। मैंने इसे अपना परम सौभाग्य समझा कि आगम-सेवा के पवित्रतम कार्य में मैं भी किसी अंश तक सहायक हो सकता हूँ। मैंने मुनिश्री को मुझ से जितना बन सकता है उतना सहयोग देना स्वीकार किया। मुनिश्री ने अनुवाद का कार्य आरम्भ कर दिया । मुनिश्री परिश्रमपूर्वक जैसे २ कार्य करते जाते वैसे २ अनुवादादि की पाण्डुलिपि मुझे संशोधन व सम्पादन के लिए देते जाते थे । इस प्रकार मैंने प्रस्तुत ग्रंथ का सम्पादन किया है।
सम्पादन शैली – श्री धर्मदास जैन भित्र मण्डल रतलाम के पुस्तकालय में संग्रहीत हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों के आधार इसका मूल पाठ लिया गया है । पाठान्तरों के होने पर टीकाकार श्री शीलांकाचार्य विरचित संस्कृत टीका के आधार से पाठ -निर्णय कर मूल में रक्खा गया है । प्रारम्भ में पाठान्तरों को फुटनोट में स्थान दिया गया है परन्तु बाद में सुविधा की दृष्टि से विशिष्ट पाठान्तरों की एक स्वतंत्र सूची दे दी गई है । टीका के आधार से मूल का संस्कृतछायानुवाद भी दिया गया है ताकि संस्कृतज्ञों को मूल पाठ समझने में सुविधा हो। अभ्यासार्थी वर्ग की सुविधा के लिए अन्वययुक्त शब्दार्थ भी दिये गये हैं । इसके पश्चात् मूलानुस्पर्शी हिन्दी अनुवाद और तत्पश्चात् सूत्र के गम्भीर सर्म को स्पष्ट समझाने के लिए विवेचन दिया गया है। परिशिष्ट में पारिभाषिक शब्द कोष भी दे दिया गया है ताकि जैनेतर जनता को उस शब्द का मर्म समझ में आ सके ।
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यह ग्रंथ आज से ६ वर्ष पूर्व ही तय्यार हो चुका था। लेकिन द्वितीय महायुद्ध के कारण प्रकाशन सामग्री की दुर्लभता एवं महर्घता के कारण प्रकाशित नहीं किया गया । महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात् जब कागज सुलभ होने लगा तब इसके प्रकाशन का विचार किया गया। पं. श्री किशनलालजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता मुनिश्री सौभाग्यमलजी म. के उज्जैन के चातुर्मास में श्री जैन साहित्य समिति की स्थापना हुई और उसकी ओर से श्री गुरुकुल प्रिंटिङ्ग प्रेस ब्यावर में इसके मुद्रण की व्यवस्था की गई । इस संस्करण के आदि निर्माण से लेकर मुद्रित एवं प्रकाशित होने तक सब कार्यों में मेरा हाथ रहा है इसलिए इस संस्करण में रह जाने वाली भूलों के लिए मैं अपने आपको दोषी सम'झता हूँ । आगम का कार्य महान और गम्भीर है। इसके सम्पादन के लिए विशिष्ट योग्यता की आव श्यकता होती है यह जानते हुए भी आगम-सेवा की भावना से प्रेरित होकर मैंने यह उत्तरदायित्व अंगीकार किया। अज्ञान, प्रमाद और दृष्टिदोष के कारण भूल हो जाना स्वाभाविक है। यदि कोई सज्जन उदार और शुभ आशय से रही हुई भूलों के लिए सूचन करेंगे तो मैं उनका आभार मानूँगा ।
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महावीर जयन्ती श्री जैन गुरुकुल, ब्यावर
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जैन समाज के प्रसिद्ध लेखक पण्डितवर्य श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायतीर्थ प्रधानाध्यापक श्री 'गुरुकुल, ब्यावर ने मेरी श्राग्रहभरी प्रार्थना को मान देकर विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखकर इस संस्करण का महत्व बढ़ाया है इसके लिए मैं उनका हार्दिक आभार मानता हूँ ।
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गच्छतः संवलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति साधवः ॥
— बसन्तीलाल नलवाया,
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न्याय तीर्थ