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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्ययन तृतीय उद्देशक; ] [ ५३ परन्तु वहां चैतन्य नहीं है इसलिये स्पष्ट प्रतीत होता है कि पंचभूतात्मक देह से पृथक् आत्मा नामक द्रव्य है और चेतना उसीका गुण है । आत्मा का अस्तित्व अनेक प्रमाणों से सिद्ध है । प्रत्येक प्राणी को यह स्वसंवेदन (ज्ञान) होता हैं कि "मैं हूं" । यही संवेदन आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है । क्योंकि 'मैं हूं' इसमें 'मैं' शब्द आत्मा के लिये ही प्रयुक्त होता है। कदाचित् यह कहा जा सकता है कि यहां "मैं" शब्द आत्मा को नहीं लेकिन शरीर को बताता है किन्तु यह कथन युक्ति-संगत नहीं है। क्योंकि "मैं शरीर हूं" ऐसा प्रयोग नहीं होता है बल्कि ऐसा होता है कि मेरा शरीर है। जिस प्रकार "मेरा धन" ऐसा कहने से धन उसके मालिक से जुदा प्रतीत होता है ठीक इसी करह "मेरा शरीर" यह प्रयोग बतलाता है कि शरीर का अधिष्ठाता कोई न कोई हैं, जो शरीर का अधिष्ठाता है वही आत्मा है। अब अनुमानों द्वारा आत्मा की सिद्धि की जाती है - " इस शरीर को ग्रहण करने वाला कोई न कोई द्रव्य है क्योंकि यह शरीर कफ, रुधिर अंगोपांग आदि का परिणाम मात्र है। अन्नादि की तरह । जैसे अन्न को ग्रहण करने वाला कोई न कोई है वैसे ही शरीर को ग्रहण करने वाला भी कोई द्रव्य है वही द्रव्य आत्मद्रव्य है । ( २ ) इन्द्रियों को प्रवृत्ति कराने वाला कोई द्रव्य हैं क्योंकि इन्द्रियाँ करण (साधन रूप ) हैं कुठार आदि की तरह। जिस प्रकार कुठार स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकता है किन्तु जब कर्त्ता उसका उपयोग करता है तभी वह क्रिया करता है। उसी प्रकार इन्द्रियाँ स्वयं पढ़ार्थों को नहीं जान सकती हैं क्योंकि वे साधन मात्र हैं । उन इन्द्रियों का उपयोग करने वाला कर्त्ता होना चाहिये वही आत्मा है । इसतरह अनेक प्रमाणसिद्ध आत्मद्रव्य अवश्य है । वर्तमान समाचारपत्रों में पुनर्जन्म को सिद्ध करने वाली अनेक घटनाएं पढ़ने में आती हैं। पुनर्जन्म आत्मसिद्धि का अकाट्य एवं प्रबल प्रमाण है । अनेक महार्पियों और तपस्वी जनों अपने दीर्घकालीन अनुभव के पश्चात् अपनी साधना के फलस्वरूप यह बताया है कि आत्मद्रव्य है । उन निस्पृह एवं प्राप्त पुरुषों के वचन कदापि उपेक्षणीय नहीं हो सकते । कि वैज्ञानिकों ने तो वनस्पति में हास्य, क्रोध, अहंकार, राग आदि भावों का स्पष्ट अनुभव करा दिया है। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जल की एक बिन्दु में असंख्य जीव हैं । जब जल वनस्पति आदि सूक्ष्म चेतना वालों की चेतनता व्यक्त हो रही है ऐसी अवस्था में आत्मामात्र का अपलाप करना मात्र बकवाद ही है । अतः श्रपकाय को सचेतन समझ कर उनका संयम करना चाहिये । जाणा पुढो पास, अणगारा मोति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेणं, उदयसत्थं समारंभमाणा र प्रणेगरूवे वाले विहिंसति (२२) संस्कृतच्छाया ––– जजमानान्पृथक् पश्य, अनगारा स्म इत्येके प्रवदन्तः यदिदं विरूपरूपैः शनैः उदकंकर्मसमारम्भेण उदकशत्रं समारभमानाः श्रन्याननेकरूपान् प्राणान् हिनस्ति । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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