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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 2] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् अक्खति वह अपने आपका अपलाप करता है । जे अत्ताणं अभाइक्खति जो आत्मा का पाप करता है। सेलो अभाइक्खति वही अप्काय लोक का अपलाप करता है । 1 भावार्थ - हे जम्बू ! मैं कहता हूं कि प्राणियों के ( प्रसंग से अपकाय के जीवों के ) चैतन्य का पाप नहीं करना चाहिये । इसी तरह आत्मा के अस्तित्व का भी निषेध नहीं करना चाहिये । जो प् कायादि प्राणियों के चैतन्य का अपलाप करता है वह अपने चैतन्य का अपलाप करता है । जो अपने चैतन्य का पाप करता है वही अन्य (जलादि) प्राणियों के चैतन्य का निषेध करता है । विवेचन- इस सूत्र द्वारा सूत्रकार आत्मा के अस्तित्व के साथ ही जलकाय में भी जीव है यह सिद्ध करते हैं। संसार में अनेक प्रकार के प्राणी हैं और सभी चैतन्य वाले हैं। जिस प्रकार मनुष्यों की आत्मा भी नानाविध कर्मोदय से छोटी-बड़ी काया धारण करती है उसी प्रकार जलादि सूक्ष्म जीवों की भी विविध प्रकार की आकृत्ति होती है अतः उन्हें भी अपने समान चैतन्यसम्पन्न समझना चाहिये कई वादी अप्काय की चेतनता का अपलाप करते हुए कहते हैं कि पानी उपयोग की वस्तु होने "से. केवल घी तेल की तरह उपकरण मात्र है इसमें चेतन नहीं है परन्तु उनका यह कथन मिथ्या है क्योंकि उपकरण ( काम में आने वाला ) मात्र से अगर अजीव हो जाते हैं तो हाथी इत्यादि भी सवारी के उपकम हैं इसलिये वे भी प्रचित्त होने चाहिये किन्तु वे सचेतन हैं। उसी तरह जलकाय भी उपकरण होने पर भी सचेतन है । जिस प्रकार नवीन गर्भ में उत्पन्न हाथी का शरीर कलल अवस्था में द्रव रूप होता है किन्तु वह वेतन है उसी प्रकार द्रवरूप जल भी सचेतन है। सात दिन तक हाथी का शरीर गर्भ में कलल (पानीरूप) खुप रहता है बाद में उसमें कठोरता श्राती है तो सात दिन तक कलल जिस प्रकार सचित समझा जाता है उसी तरह द्रवात्मक जलकाय को भी सचित्त समझना चाहिये । तथा जिस प्रकार अण्डे में रहा हुआ पानी सचित्त है उसी तरह जल भी सचित्त है । अनुमान द्वारा जलकी सचेतनता सिद्ध करते हैं - जल सचेतन है क्योंकि शस्त्र द्वारा अनुपहत होते हुए द्रवरूप है, जैसे हाथी के शरीर का कारणरूप कलल । 'शत्रद्वारा अनुपहत' इस विशेषण से प्रस्रवण (पेशाब) का निषेध हो जाता है। इसी तरह जल सचेतन हैं - अनुपहत द्रवरूप होने से - जैसे अण्डे में रहा हुआ पानी । जल सचित्त है क्योंकि भूमि को खोदने पर स्वाभाविक रूप से यह प्रकट होता है जैसे मेंढक | भूमि खोदने पर क्वचित निकला हुआ मेंढक सचेतन हैं वैसे ही भूमि खोदने पर स्वाभाविक निकला हुआ जल भी सचित्त है । इत्यादि अनेक अनुमानों द्वारा जत की सचेतनता सिद्ध होती है । इस सचेतन जलकाय का जो अपलाप करते हैं वे मानों अपनी आत्मा का अपलाप करते हैं । एक एक नाक यदि नास्तिक आत्मा का निषेध करते हैं; वे कहते हैं कि पंचभूतात्मक शरीर में ही चैतन्य गुण है. इससे व्यतिरिक्त आत्म-तत्त्व पृथक नहीं है परन्तु उनका यह कथन युक्तिरहित है क्योंकि पंचभूत स्वयं जड़ हैं तो उनसे चैतन्य कैसे प्रकट हो सकता है ? जिस प्रकार बालुका से तेल नहीं निकल सकता है उसी प्रकार जड़ से चैतन्य कभी प्रकट नहीं हो सकता। दूसरा दोष यह आता है कि उनके मत में पंचभूत और नित्य माने गये हैं, तो मृतशरीर में भी उनका सद्भाव है तो वहाँ भी चैतन्य प्रकट होना चाहिये For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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