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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir .२४] .............-... [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम् शब्दार्थ-लजमाणा=सावद्यअनुष्ठान से शरमाने वालों को । पुढो पृथक् । पास= देख। अणगारा मो त्ति हम अणगार हैं ऐसा । एगे एकएक शाक्यादि साधु । पवयमाणा=अभिमान से बोलते हुए भी । जमिणं इस अप्काय को । विरूवरूवहि-विविध प्रकार के। सत्यहि-शस्त्रों द्वारा। उदयकम्मसमारंभेण=जलकाय सम्बन्धी क्रिया का प्रारम्भ करने से । उदयसत्थं अपकाय के शस्त्र का । समारंभमाणप्रयोग करते हुए । अएणे अन्य । अणेगरूवे= अनेक प्रकार के । पाणे आणियों की । विहिंसति=हिंसा करते हैं। भावार्थ-हे जम्बू ! कितने ही सुसाधु अप्काय की हिंसा से शरमाते हुए प्राणियों को पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं, यह तू देख । कितने ही नामधारी शास्यादि साधु हम अनगार हैं ऐसा अभिमान पूर्वक कहते हैं परन्तु वे अप्काय के जीवों को, तत्सम्बन्धी क्रिया का प्रारम्भ करते हुए अनेक प्रकार के रास्त्रों द्वारा, पीड़ा पहुंचाते हुए अन्य भी अनेक जीवों की हिंसा करते हैं। तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडियायहेउं, से सयमेव उदयसत्थं समारंभति, अण्णेहि वा उदयसत्थं समारंभावेति, प्रगणे वा उदयसत्यं समारंभंते समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहिए (२३) संस्कृतच्छाया-तत्र खलु भगवता परिक्षा प्रवेदिता । अस्य चेव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःखप्रतिघातहेतुं स स्वयमेवोदकरानं समारभते, अन्यैवी उदकशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान्या उदकशस्त्रं समारभमाणान्समनुजानीते तत् तस्याहिताय तत्तस्य अबोधिलाभाय । शब्दार्थ-तत्य अप्काय के विषय में । भगवया भगवान महावीर ने । परिएणापरिज्ञा । पवेइया कही है । इमस्स चेव इसी । जीवियस्स जीवननिर्वाह के लिए। परिवंदण= प्रशंसा । माणणपूयलाए मान और पूजा के लिए । जाइमरणमोयणाए-जन्म-मरण से छूटने के लिए। दुक्खपडिघायहेउं दुःखों का निवारण करने के लिए । से वह असंयमी पुरुष । सयमेव= स्वयं । उदयसत्थं समारभति-अप्काय का प्रारंभ करता है। अगणेहिं वा अथवा अन्य से। उदयसत्थं समारंभावेति-अप्काय का प्रारम्भ करवाता है। उदयसत्थं समारंभंते अएणे वा= अप्काय का प्रारंभ करते हुए दूसरों को । समणुजाणइ अच्छा समझता है । तं-यह । से-उसके। अहियाए अहित के लिए है। तं से यह उसके लिए । अबोहिए मिथ्यात्व बढाने वाला है। भावार्थ-हे जम्बू ! भगवान् ने इस विषय में परिज्ञा समझाते हुए फरमाया है कि असंयमी 'अज्ञानी, इस चन्चल जीवन को चिरकाल तक टिकाने के लिए, प्रशंसा, मान और पूजा के लिए जन्म-- For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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