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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir . प्रथम अध्ययन तृतीय उद्देशक [५३ पणया वीरा महावीहि । लोगं च प्राणाए अभिसमेचा अकुशोभयं (२०) संस्कृतच्छाया - - प्रणताः वीरा महावाथिम् । लोकञ्चाज़गामिसमेत्याकुतोभयम् । शब्दार्थ-वीरा वीर पुरुष ! महावीहि-महान् मोक्ष मार्ग में । पणया पराक्रम कर चुके हैं। लोगं च और अपकाय लोक को। आणाए भगवान् की आज्ञा से । अभिसमेच्चा जान करके । अकुओभयं-अभयरूप संयम का पालन करे। भावार्थ-इस महान् मोक्षमार्ग में अनेक महापुरुष पराक्रम कर चुके हैं । यह मार्ग भूतकाल में अनेक धीरों द्वारा सेवित होने से शंकादि-रहित हैं। भगवान् की आज्ञा से अपूकाय जीवों को जानका उनकी यतना करें । उनके विषय में पूरा संयम रखें। विवेचन भूतकाल में इस मोक्षमार्ग पर अनेक वीर पुरुष चले हैं और इष्टस्थान को पाया है यह कहकर शिष्य को इस मार्ग पर चलने में किसी प्रकार शंका न करनी चाहिये, इस प्रकार का विश्वास दिलाया गया है। यह अनुभूत एवं परीक्षित है अतः इसमें शंकारहित होकर प्रवृत्ति करनी चाहिये। अकुओभयं का अर्थ संयम किया गया है। इसका कारण यह है कि संयम से जन्तुओं को किसी प्रकार का भय नहीं रहता है। अतः संयम ही ऐसा है जो दूसरों को निर्भय बना सकता है । संयम द्वारा प्राणी स्वयं निर्भय होता है, और अन्य को निर्भय बनाता है। प्राणी के अन्तर में जब प्रेम का अखंड स्रोत प्रवाहित होता है तब सारा संसार (छोटा सा प्राणी भी) उससे निर्भय रहता है। यही सच्ची निर्भयता है। अकुत्रोभयं को जब लोग का विशेषण मानते हैं तो यह अर्थ भी संगत ही है कि लोक (अकाय के जीव) किसी से डरना नहीं चाहता है। वह सदा निर्भय रहना चाहता है श्रतएव यह कर्त्तव्य है कि हम उसे निर्भय बना। अर्थात् उसे मरण-भीरु होने से बचावें । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी मृत्यु से डरता है अतएव हमें हमारी तरफ से संयमद्वारा उसे निर्भय बना देना चाहिये । से बेमि णेव सयं लोग अभाइक्खेजा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खन्ना, जे लोयं अब्भाइक्खति, से अत्ताणं अभाइक्खति, जे अत्ताणं भाइक्खति, से लोयं अभाइक्खति (२१) संस्कृतच्छाया-तद् ब्रवीमि नैव स्वयं लोकं प्रत्याचक्षीत नैवात्मानं प्रत्याचक्षीत यः लोकम-- भ्याख्याति स श्रात्मानमभ्याख्याति, य श्रात्मानमभ्याख्याति स लोकमभ्याख्याति । शब्दार्थ-से बेमि=मैं कहता हूँ । सयं स्वयं लोग लोक का (अप्काय जीवों का) णेव अब्भाइक्खेजा अपलाप (निषेध) न करे। अत्ताणं आत्मा का। व अन्माइक्खेजा-अप लाप न करे ।जे-जो । लोयं अब्माइक्खति-अपकाय के जीवों का अपलाप करता है । से बनाएं For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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