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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४०] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् सूत्रकार सच्चे मुनि का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि जिसने इन क्रियाओं और इनके कारणों का परिहार किया है वही मुनि है। इससे यह ध्वनित होता है कि मुनि का वेश धारण कर लेने से ही कोई मुनि नहीं कहा जा सकता है । सच्चा मुनित्व कर्मसमारम्भोंका त्याग करने से आता है । बाह्य वेश, बाह्य क्रिया-कलाप, और बाह्य आडम्बर साधुता की कसौटी नहीं है। साधुता की सच्ची कसौटी है-कर्मास्रवों का परित्याग और सम्पूर्ण अहिंसा-वृत्ति । इस कसौटी पर कसे जाने पर जो खरे उतरते हैं वही सच्चे साधु हैं-वही विवेकवान् मुनि हैं। मोक्षार्थी आत्मा कर्म के कारणों को जानता है और जानकर प्रत्याख्यान परिक्षा के द्वारा उनका त्याग करता है। ऐसा करता हुआ वह मोक्ष के निकट पहुँच जाता है और वह अपने सञ्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। सूत्रकार ने 'परिक्षा के कथन के द्वारा ज्ञान और क्रिया का सुन्दरतम समन्वय किया है। यही मोक्ष का मार्ग है। सारांश यह है कि जिस आत्मा को आत्म-विचार होता है, जो कर्मबन्धन की क्रियाओं और उनके हेतुओं को विवेक पूर्वक समझता है वही आत्मा अपना परम और चरम कल्याण सिद्ध कर सकता है। अतः समस्त क्रियाओं में विवेक का दीपक सदा प्रज्ज्वलित रखना चाहिए । श्री सुधर्मास्वामी अपने अन्तेवासी जम्बू से कहते हैं कि यह सब सर्वज्ञ भगवान् महावीर से साक्षात् श्रवण कर तुझे कहता हूँ, अपनी बुद्धि से नहीं। अतः इस पर अविचल श्रद्धा करनी चाहिए । इस कथन के द्वारा चार शान के निधान होते हुए भी सुधर्मास्वामी अपना विनय प्रकट करते हैं। यह भगवद्भाषित श्रुत पूर्ण रूप से विश्वास करने योग्य है। । इति प्रथमोद्देशकः रा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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