SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शस्त्रपरिज्ञा नाम प्रथम अध्ययन -द्वितीय उद्देशकः प्रथम उद्देशक में सामान्य जीव का अस्तित्व प्रतिपादित कर अब इस द्वितीय उद्देशक में यह बताते हैं कि पृथ्वीकायादि में भी जीव हैं और अहिंसक साधक को इन सूक्ष्म जीवों की भी वैसे ही रक्षा करनी चाहिये जैसे स्थूल प्राणियों की । केवल मनुष्य या पशुओं तफ ही अहिंसा देवी की आराधना समाप्त नहीं हो जाती परन्तु पृथ्वी, अप, तेज, वायु, और वनस्पति के अव्यक्त चेतना वाले जीवों की भी अहिंसा का पूर्ण लक्ष्य रखना चाहिये। इस आशय से इस उद्देशक में पृथ्वीकाय में जीवास्तित्व सिद्ध करते हुए उनकी यतना करने का उपदेश दिया गया है 'अट्टे लोए परिजुगणे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सिं लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास, अातुरा परितार्वति' (११) संस्कृतच्छाया-प्रातः लोकः परियूनः दुस्संबोधः अविज्ञायकः अस्मिझोके प्रव्यथिते तत्र तत्र पृथक् पश्य आतुराः परितापयन्ति । शब्दार्थ-अट्टे विषय कषाय से पीड़ित । लोए लोक । परिजुएणे प्रशस्तज्ञानादि भाव से हीन बने हुए । दुस्संबोहे कठिनता से समझने वाले। अविजाणए अज्ञानी । अस्सिं लोए पव्वहिए इस.पीडित पृथ्वीकार्य को । तत्थतत्थ खोदना, गृह बनाना आदि। पुढो भिन्नभिन्न कार्य करते हुए । अातुरा=विषयादि से अधीर होकर । परिताति-दुःख देते हैं । पास देख ।। . भावार्थः-विषय कपाय से पीड़ित होते हुए, ( औदयिक भाव के उदय होने से ) ज्ञानादि प्रशस्त भावों से हीन बने हुए, कठिनाई से बोध प्राप्त कर सकने वाले, अज्ञानी जीव-विषयादि सुखों के लिये अत्यन्त अधीर होकर खोदने, घर एवं भवनादि बनाने आदि भिन्न भिन्न कार्यों के लिये पृथ्वीकायके जीवों को अत्यन्त संताप देते हैं । हे शिष्य ! इन अशुभ प्रवृत्ति करने वालों को तू देख । . विवेचन:-पृथ्वीकाय में जीवास्तित्व का प्रतिपादन करते हुए निर्यक्तिकार ने कहा है कि उपयोग, योग, अध्यवसाय, मतिश्रतज्ञान, अचक्षुदर्शन, अष्टप्रकार के कर्मों का उदय और बंध, लेश्या, संज्ञा, श्वासोच्छवास और कषाय, ये जीव में पाये जाने वाले गुण पृथ्वीकाय में भी पाये जाते हैं अतः मनुष्यादि की तरह पृथ्वीकाय को भी सचित्त समझना चाहिये। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy