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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [आचाराग-सूत्रम् ग्रहण हो जाता है । प्रायः शारीरिक वेदनाएँ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द के आश्रित होती हैं। स्पर्श-ग्रहण से सब शारीरिक वेदनाओं का ग्रहण हो जाता है। यह उपलक्षण है, इससे मानसिक वेदनाएँ भी समझ लेनी चाहिए । तात्पर्य यह है कि जोइन कर्मसमारम्भों को नहीं जानता और नहीं त्यागता वही संसार में भटकता हुआ विविध योनियों में विविध शारीरिक और मानसिक वेदनाओं का अनुभव करता है । कहीं २ 'संधेइ' के स्थान पर 'संधावई' पाठान्तर मिलता है। इसका अर्थ है कि वह जीव उन योनियों में पुनः पुनः जाता है और वहाँ बीभत्स अनुभवों का वेदन करता है। समस्त सूत्र का तात्पर्य यह हुआ कि जो कर्मसमारम्भों को नहीं जानता है वही संसार में भ्रमण करता है और यातनाएँ उठाता है अथवा जो संसार में परिभ्रमण करता हुआ अनेक योनियों में यातनाएँ झेलता है वह कर्म समारम्भों को नहीं जानता है। अतः कर्मसमारम्भों का विवेक करने के लिए सूत्रकार कहते है किः तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइना (सू. ८) संस्कृतच्छाया-तत्र खलु भगवता परिक्षा प्रवेदिता । शब्दार्थ-तत्थ इम कर्मसमारम्भों में। खलु निश्चय ही। भगवया भगवान ने। परिएणा परिज्ञा (विवेक) । पवेइा-समझायी है। भावार्थ-हे जम्बू ! ऊपर बताई हुई कर्मबन्धन-रूप क्रियाओं में पूरा-पूरा विवेक रखने के लिए भगवान् बर्द्धमानस्वामी ने उपदेश प्रदान किया है । विवेचन-कर्मबन्धन की क्रियाओं का प्रतिपादन करने के पश्चात् उन क्रियाओं से अपनी भात्मा को बचाने के लिए सूत्रकार सावधान कर रहे हैं । बन्धन का स्वरूप इसीलिए बताया जाता है कि प्राणी-गण उसे जानकर उससे निवृत्ति करें। रोग के कारणों को जान लेने पर स्वास्थ्य और आरोग्य का अभिलाषी व्यक्ति अवश्य ही उन कारणों को दूर करने की चेष्टा करता है। इसलिए ही वैद्यकशास्त्र में रोग के निदान का बड़ा महत्त्व है। निदान के ठीक-ठीक हो जाने पर ही रोग की चिकित्सा सफल हो सकती है। इसी तरह यहाँ बन्धन के निदानों का स्वरूप बता दिया गया है ताकि प्राणी बन्धन के कारणों को दूर कर दें। सूत्रकार ने कर्म-समारम्भों में परिक्षा करने का उपदेश दिया है। 'परिक्षा' का अर्थ है विवेक । वस्तु के स्वरूप को ठीक-ठीक जानना और जानने के पश्चात् उपादेय को ग्रहण करना, हेय का परित्याग करना और उपेक्षणीय की उपेक्षा करना ही परिक्षा है-विवेक है। इसीलिए शास्त्रकार ने परिज्ञा के दो भेद बतलाये हैं-श-परिशा और प्रत्याख्यान-परिक्षा। ज्ञ-परिक्षा के द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाता है और प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा हेय का त्याग किया जाता है। कर्मबन्धनों में विवेक करने का अर्थ यह है कि ये कर्म-समारम्भ 'आत्मा के स्वरूप को मलिन For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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