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उद्देश]
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की चार लाख और मनुष्य की चौदह लाख —ये कुल ८४ लाख जीवयोनियाँ हैं । इन शुभाशुभ योनियों में इस जीव ने अनन्त बार जन्म-मरण किया है। कहा है:
देविंदचकवत्तिणाई मोत्तच तित्थगरभावं । अणगारभाविताविय ससाउ
णतसो पत्ता ॥
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श्रर्थात् इन्द्रत्व, चक्रवत्तित्व, तीर्थङ्करनाम और भावित अनगारत्व को छोड़कर शेष योनियों में इस जीव ने अनन्त बार जन्म-धारण किया है। तात्पर्य यह है कि जब तक कर्मबन्धन के स्वरूप का ज्ञान न हो और उसके कारणों का परिहार न किया जाय वहां तक यह भव-परम्परा चलती ही रहेगी । विषय और कषाय रूपी जल से सिंची जाती हुई यह भव-वल्लरी उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली जाती है ।
कर्मसमारम्भों से विवश बना हुआ प्राणी संसार- कान्तार में अन्धे की तरह इधर-उधर भटकता रहता है । वह नरक गति के भीषण दुखों का वेदन करता है, तिर्यञ्च गति में क्षुधा, पिपासा, भय आदि का त्रास पाता है, मनुष्य गति में नानाविध श्रधि, व्याधि और उपाधिजन्य कष्टों का अनुभव करता है और देवगति में भी मान भङ्ग, अल्प ऋद्धि आदि के द्वारा दुख का अनुभव करता है । दुखों से घबरा कर यह प्राणी उनके प्रतीकार के लिए पुनः प्राणिवध आदि कार्यों में प्रवृत्ति करता है और फलस्वरूप नवीन कर्मों का बन्धन कर लेता है और फिर उनका कटुक विपाक वेदन करता है । इस तरह यह दुख-परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है ।
इस प्रकार दुखों को सहते सहते, श्रकाम - निर्जरा के द्वारा तथा उपार्जित पुण्य-पुख के प्रभाव से जीव को मनुष्य-भव की प्राप्ति, समग्र इन्द्रियों की उपलब्धि, दीर्घ आयु, स्वास्थ्य आदि सामग्रियों का संयोग मिलता है तदपि वह अपने अज्ञान के कारण इनका दुरुपयोग करता है और पुनः उसी भीषण अवस्था में श्राजाता है जहाँ अनन्त काल तक उसे विकास का साधन उपलब्ध नहीं होता ।
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यह मनुष्य-भव और यह विचार-शक्ति प्राप्त होने पर तो अवश्य ही आत्मा और कर्मसमारम्भों का परिज्ञान करना चाहिए। यदि यहाँ भी यह न हो सका तो पुनः अनन्त काल तक एक दिशा से दूसरी दिशा में वायु से प्रेरित तिनके की तरह भटकना पड़ेगा । मनुष्य-भव में कर्मसमा - रम्भों का परिज्ञान करने की विशेष सुविधा है अतः इसका अवश्य ही लाभ लेना चाहिए। ऐसा अवसर पुनः पुन: नहीं श्राता । अवसर चूके तो पुनः वहीं के वहीं पड़ा रहना होगा । मनुष्य मननशील प्राणी है । वह अपना भूत और भविष्य विचार सकता है इसलिए ही सूत्रकार ने उसे प्रधान मानकर, 'अयं पुरिसे' ऐसा कहा है । वैसे उपलक्षण से यह चतुर्गति में वर्तमान सर्व साधारण प्राणी के लिए कहा गया है । अतः मनुष्य को विशेष रूप से अपनी आत्मा और कर्मसमारम्भों का विचार करना चाहिए। कर्मसमारम्भों का भलीभाँति ज्ञान न होने से ही जीव, जीव-हिंसा आदि सावद्य कार्यों में प्रवृत्ति करता है और चाट प्रकार के कर्मों का बंध कर लेता है । तदनन्तर कर्मों का उदय होने पर नाना प्रकार के दुखों का अनुभव करता है।
दुख के अनुभव के अर्थ को प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने 'फासे' शब्द दिया है। इसका अभिप्राय यह है कि स्पर्शनेन्द्रिय तो प्राणी मात्र को होती है। इससे संसारवत्र्त्ती सब जीवों का
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