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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम उद्देशक ] [ ३७ करने वाले हैं और ये आत्मा की स्वतंत्रता को छीनकर उसे बन्धन में जकड़ देने वाले हैं। यह जानकर उन क्रियाओं से बचना-उनका परित्याग कर देना यही कर्मसमारम्भों की परिक्षा है। मुमुनु आत्माओं के लिए परिक्षा करना सर्वप्रथम आवश्यक है। इसके बिना आगे प्रगति नहीं हो सकती है । जैसे वर्णमाला में 'अ' और अंकगणित में 'एक' को जाने बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता है इसी तरह 'परिक्षा' को समझे बिना मोक्ष-मार्ग में प्रगति नहीं की जा सकती है। हित-अहित,कर्तव्य-अकर्तव्य और जड़-चेतन के सम्यग् विवेक के विना निश्चित एवं सही दिशा में गति नहीं हो सकती। विवेक के अभाव में लक्ष्य का भान नहीं रहता, दिशा नहीं सूझती, अतः प्राणी इधर-उधर ठोकरें खाता रहता है। अतएव मुमुक्षु आत्मा को सर्वप्रथम सञ्चा विवेक कर सकने का अभ्यास करना चाहिए। विवेक के प्रकाश में उसे अपना गन्तव्य मार्ग सदा दिखता रहेगा और वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही चला जावेगा। विवेक का दीपक प्रज्ज्वलित रहता है तो सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश है और विवेक के दीपक के बुझने पर चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। इसीलिए सूत्रकार ने बन्धन का स्वरूप बताकर उसमें पूरा २ विवेक रखने का सर्वप्रथम उपदेश दिया है। श्रात्मा के बन्धन को जानना और जानकर उसे तोड़ना ही मुक्ति है। इस मुक्ति का सर्वप्रथम उपाय सम्यक् परिक्षा ही है । अतः बुद्धिमान साधक को 'परिक्षा' करनी चाहिए । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाइमरणमोयणाए' दुक्खपडिग्घायहेउं (सू. ६) संस्कृतच्छाया-अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनाय, जातिमरणमोचनाय दुःखप्रतिघातार्थम् ( क्रियासु प्रवर्तते ) शब्दार्थ-इमस्स चेव जीवियस्स-इस जीवन के लिए। परिवंदण प्रशंसा। माणण= मान-आदर । पूयाणए पूजा के लिए । जाइ-मरण-मोयणाए जन्म, मरण और मुक्ति के लिए। अथवा जन्म-मरण से छूटने के लिए। दुक्खपडिग्धायहेउं दुखों का प्रतिकार करने के लिए। भावार्थ- अपने जीवन के लिए ( इसे चिरकाल तक टिकाने के लिए ) यश की प्राप्ति के लिए, मान, पूजा-सत्कार प्राप्त करने के लिए, जन्म-प्रसंग और मरण-प्रसंग के लिए, मुक्ति के लिए अथवा जन्म-मरण से छूटने के लिए तथा दुखों को दूर करने के लिए प्राणी पापमय क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है। विवेचन-जीव जिन-जिन कारणों से कर्मस्वरूप क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है उनका प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि नश्वर, चञ्चला बिजली की चमक से भी अधिक चञ्चल और निस्सार जीवन को लम्बे काल तक टिका रखने की भावना से जीव पापमय क्रियाओं में प्रवृत्ति १-जाइमरणभोयणाए। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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