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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६१८ नवम अध्ययन चतुर्थ उद्देशक ] अवि सूइयं वा सुक्कं वा सीयं पिण्डं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिण्डे अलद्धे दविए ॥१३॥ अवि भाइ से महावीरे पासणत्थे अकुक्कुए झाणं । उड्ढे अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने ॥१४॥ अकसाई विगतगेही य सदरूवेसु अमुच्छिए झाइ। छउमत्थो वि परकममाणे न पमायं सइंपि कुब्वित्था ॥१५॥ सयमेव अभिसमागम्म प्रायतजोगमायसोहीए। अभिनिव्वुडे अमाइल्ले श्रावकहं भगवं समियासी ॥१६॥ एस विही अणुकन्तो माहणेण मईमया। बहुसो अपडिन्नेण भगवया एवं रीयन्ति॥१७॥त्ति बेमि।। संस्कृतच्छाया-अपि सूपिकं वा शुष्कं वा शीतपिण्डं पुराणकुल्माषं । अथवा बुक्कसं पुलाकं वा लब्धे पिण्डे अलब्धे द्राविकः ॥१३॥ अपि ध्यायति स महावीरः आसनस्थोऽकौत्कुचो ध्यान। ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिशः ॥१४॥ अकषायी विगतगृद्धिश्च शब्दरूपेष्वमूच्छितो ध्यायति। छद्मस्थोऽपि पराक्रममाणोन प्रमादं सकृदपि कृतवान् ।।१५।। स्वयमेवाभिसमागम्याऽऽयतयोगमात्मशुद्ध्या । अभिनित्तोऽमायावी यावत्कथं भगवान् समित आसीत् ॥१६॥ एष विधिरनुकान्तो माहनेन मतिमता । बहुशोऽप्रतिशेन भगवता एवं रीयन्ते ॥१७॥ इति ब्रवीमि ।। शब्दार्थ-अवि सइयं-मिला हुआ आहार चाहे दूध-दही से आई । वा सुक्कं अथवा सूखा हो । सीयं पिण्डं चाहे ठंडा आहार हो । पुराणकुम्मासंबहुत दिन के पकाये हुए उड़द हो । अदु बुक्कसं अथवा पुराने धान्य का हो अथवा पुराना सतुवा हो । पुलागं वा-जौ आदि का हो । लद्धे पिएडे-आहार के मिलने पर। अलद्धे न मिलने पर । दविए भगवान् समभाव रखते थे ॥१३॥ से महावीरे वह महावीर भगवान् । आसणत्थे उत्कट, गोदोहिकादि आसन से स्थित होकर । अकुक्कुए=स्थिर या निर्विकार होकर । समाहिं पेहमाणे समाधि-अन्तःकरण की शुद्धि का विचार कर । अपडिन्ने कामनारहित होकर । झाणं झाइ ध्यान ध्याते थे । उडढं, अहं, तिरियं ध्यान में ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, और तिर्यक् लोक के स्वरूप का विचार करते थे ॥१४॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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