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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [प्राचारा-सूत्रम संस्कृतच्छाया ग्राम प्रविश्य नगरं वा ग्रासमन्वेषयेत् कृतं परार्थाय । सुविशुद्धमेषित्वा भगवानायतयोगतया सेवितवान् ।।६।। अथ वायसा बुभुक्षार्ताः येऽन्ये रसैषिणः सत्वाः । ग्रासषणार्थ तिष्ठन्ति (तान्) सततं निपतिताञ्च प्रेक्ष्य ॥१०॥ अथवा ब्राह्मणं च श्रमण वा ग्रापपिण्डोलकं चातिथिं वा । श्वपाकमूषिकारिं वा कुकुरं वापि विस्थितं पुरतः ॥११॥ वृत्तिच्छेदं वर्जयन् तेषामप्रत्ययं परिहरन् । ___मन्दं पराक्रमते भगवान हिंसन् प्रासमेषितवान् ॥१२॥ शब्दार्थ-गाम नगरं वा पविसे आम अथवा नगर में प्रवेश करके। परट्ठाए कडं= दूसरों के लिए बनाये हुए। घासमेसे आहार की गवेषणा करते। सुविसुद्धमेसिया=निर्दोष आहार प्राप्त कर । भगवं-भगवान् । आयतजोगतया-मन, वचन, काया को संयत करके। सेवित्था सेवन करते थे ॥६॥ अदु-अगर । दिगिछत्ता भूख से व्याकुल । वायसा= कौवे । जे अन्ने रसेसिणो सत्ता अन्य पानाभिलाषी प्राणी। घासेसणाए चिट्ठन्ति जो आहार की अभिलाषा में बैठे हैं । सययं निवइए य=और सतत भूमि पर पड़े हुए। पेहाए देखकर ॥१०॥ अदुवा अथवा । माहणं च समणं वा ब्राह्मण को, शाक्यादि श्रमण को। गामपिण्डोलगं= भिखारी को । अतिहिं वा=अतिथि को। सोवागं=चाण्डाल को । मूसियारिं वा=बिल्ली को । कुकुरं वावि और कुत्ते को। पुरो विद्वियं सामने स्थित देखकर ॥११॥ वित्तिच्छेयं वजन्तो उनकी वृत्ति में (आहार-प्राप्ति में) अन्तराय न डालते हुए। तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो उनकी अप्रीति के कारण को छोड़ते हुए । अहिंसमाणे-उनको थोड़ा भी त्रास नहीं देते हुए । भगवं3 भगवान् । मन्दं परकमे मन्द २ चलते और | घासमेसित्था आहार की गवेषणा करते ॥१२॥ भावार्थ-भगवान् ग्राम या नगर में प्रविष्ट होकर दूसरों के निमित्त बने हुए आहार की शोध करते थे । (उद्गमन के १६ दोषों को टालकर आहार-पानी लेते थे ।) सम्पूर्ण विशुद्ध (उत्पादन के १६ दोषों से रहित) आहार की एषणा करके (एषणा के १० दोषों को टालकर ग्रहण किया हुआ आहार) मन, वचन और काया के योगों को संयत करके उपभोग में लेते थे। (मण्डल के दोषों का परिहार करते थे ।।६।। जब भगवान् भिक्षा के लिए पधारते तब मार्ग में क्षुधा से प्राप्त कौवा आदि पक्षियों को या पान की अभिलाषा वाले प्राणियों को भूमि पर एकत्रित हुए देखकर अथवा किसी ब्राह्मण या शाक्यादि श्रमण को, भिखारी को, अतिथि को, चाण्डाल को, बिल्ली को, कुत्ते को और अन्य किसी प्राणी को सामने खड़ा देखकर, उनकी आजीविका में बाधा न डालते हुए, उनके लिए अप्रीतिकर न होते हुए, किसी की भी हिंसा न करते हुए (त्रास न देते हुए) धीरे से निकल जाते थे (वह स्थान छोड़कर अन्यत्र) भिक्षा की गवेषणा करते थे। (अपने निमित्त सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी को भी तनिक भी कष्ट न हो इसका भगवान् पूरा-पूरा ध्यान रखते थे ॥१०-१२॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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