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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२० ] . [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम अकसाई कषायरहित । विगयगेही आसक्ति रहित । सदरूवेसु अमुच्छिए शब्द और रूप में गृद्ध न होकर। झाइ ध्यान करते थे। छउमत्थो वि-छमस्थ होते हुए भी। परक्कममाणो संयम में पराक्रम करते हुए । सइंपि=एक बार भी।पमायं न कुवित्था प्रमाद नहीं किया ॥१॥ सयमेव स्वयं ही । अभिसमागम्म-तत्त्व को जानकर । प्रायसोहीए आत्म शुद्धि के द्वारा। आयतजोगं योगों को संयत करके । अभिनिबुडे कषायों से अतीत हुए। अमाइल्ले मायारहित हुए । भगवं भगवान् । आवकह-यावजीवन । समियासी समितियों से समित थे ॥१६॥शेष पूर्ववत् । भावार्थ-प्राप्त हुआ थाहार चाहे दूध-दही-घी से आई हो चाहे सूखा हो, ठंडा हो, बहुत दिन के पकाये हुए उड़द हों, पुराने धान्य का हो या पुराना सतुआ हो, या जौ आदि का हो, उसके मिलने पर भगवान् खेद नहीं मानते थे । आहार मिलने या न मिलने पर मी भगवान् समभाव रखते थे ॥१३॥ भगवान् महावीर उत्कट, गोदोहिक, वीरासन आदि आसनों से स्थित होकर, स्थिर-निर्विकार रहकर, अन्तःकरण की शुद्धिपूर्वक, कामनारहित होकर धर्म-ध्यान-शुक्लध्यान ध्याते थे। उसमें ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक के स्वरूप का चिन्तन करते थे । ( ध्यान-योग का यह स्वरूप अवश्य मननीय है)॥१४॥ वे भगवान् कषायरहित और आसक्तिरहित बनते जाते थे अतः शब्द, रूप आदि इन्द्रियों के विषयों में कभी गृद्ध नहीं होते थे। वे सदा आत्म-ध्यान में लीन रहते थे । छद्मस्थ होते हुए भी संयम में प्रबल पुरुषार्थ करते हुए भगवान् ने एकबार भी प्रमाद का सेवन नहीं किया ॥१५॥ इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने स्वयं ही तत्त्वों को जानकर ( स्वयं-बुद्ध होकर ) आत्मशुद्धि की और मन, वचन और काया को संयत करके, मायादि कषायों से मुक्त होकर अन्त तक सत्प्रवृत्तिमय रहे और कर्मों से सर्वथा निवृत्त हुए । ( तथा सिद्ध-बुद्ध बन गये ) ॥१६॥ मतिमान् श्रमण भगवान् महावीर ने किसी प्रकार की कामना न रखते हुए इस उत्तम आचार का पालन किया । इसको लक्ष्य में रखकर अन्य मुमुक्षु साधक भी उसी मार्ग में विचरण करें ॥१७॥ श्री सुधर्मस्वामी ने अपने जिज्ञासु शिष्य जम्बूस्वामी से कहा कि जैसा मैंने भगवान् के मुखारविन्द से सुना, वैसा तुम्हें कहा है। -उपसंहारइस प्रकार श्रमण भगवान महावीर की तीव्रतम तपोमय साधना का और अन्ततः साध्यसिद्धि का सूत्रकार ने सूक्ष्म आलेखन किया है । इस आलेखन का अभिप्राय अन्य मुमुनु आत्माओं को अभीप्सित मार्ग पर प्रयाण करने के लिए प्रेरणा प्रदान करना है । जो मुमुक्षु भगवान के प्रकाशमय जीवन से प्रकाश पाकर साधना की मंभिल को तै करता हुआ आगे बढ़ता रहता है वह अवश्य ही अपने लक्ष्य पर पहुँचेगा । मोक्षाभिलाषी आत्माओं को भगवान् का आदर्श जीवन अपने सन्मुख रखते हुए उनके बताये हुए मार्ग पर दृढ़ विश्वास के साथ प्रयाण करते रहना चाहिए । इमी में परम और चरम कल्याण है । यही सिद्धि का सोपान है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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