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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ आचाराङ्ग-सूत्रम् संस्कृतच्छाया- अपरिज्ञातकर्मा खल्वयं पुरुषो य अमूः दिशोऽनुदिशोऽनुसञ्चरति, सर्वाः दिशः सर्वाःअनुदिशः साधयति । अनेकरूपा योनीः सन्धयति, विरूपरूपान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति । ... शब्दार्थ-अपरिगणायकम्मा कर्मवन्धन के स्वरूप को नहीं जानने वाला । खलु= निश्चय ही । अयं पुरिसे यह पुरुष है । जो जो । इमाओ दिसाओ अणुदिसामो अमुक दिशाविदिशा में । अणुसञ्चरइ गमनागमन करता है। सवालो दिसाओ अणुदिसाओ सब दिशाविदिशा में । साहेइ-अपने कर्मों के साथ गमनागमन करता है। अणेगरूवारो जोणीयो= अनेक तरह की योनियों के साथ । संधेइ अपना सम्बन्ध करता है । विरूवरूवे विविध प्रकार के । फासे दुखों को । पडिसंवेदेइ वेदता है। भावार्थ-जिसने कर्मबन्धन की क्रियाओं के स्वरूप को नहीं समझा है वही पुरुष अमुक दिशाविदिशा में तथा सब दिशा अनुदिशाओं में परिभ्रमण करता है और विविध ( चौरासी लाख ) योनियों में अनेक प्रकार के दुखों का अनुभव करता है। विवेचन इस सूत्र में संसार में परिभ्रमण करने का कारण बताया गया है। जिन प्राणियों ने कर्मबन्धन के कारणों का परिज्ञान नहीं किया है वे ही प्राणी इस दिशा-विदिशा से अन्य दिशाविदिशा में गमनागमन करते हैं । जिस प्रकार घटीयन्त्र घूमता ही रहता है उसके पात्र भरते और खाली होते रहते हैं इसी तरह यह जीव भी संसार में भ्रमण करता ही रहता है। यह भी नये २ शरीरों को धारण करता है और पूर्व शरीर को छोड़ता रहता है। यह जन्म-मरण की परम्परा भनन्तकाल तक चलती ही रहती है। न सा जाई न सा जोणी जत्थ जीवो न जायइ । अर्थात्-ऐसी कोई भी जाति और योनि नहीं है जहां जीव ने जन्म न लिया हो । एकेन्द्रिय प्रादि जातियों में इस जीव ने असंख्य धार जन्म लिया है । लोक में चौरासी लाख जीव-योनियां कही गई हैं । वे इस प्रकार हैं: पुढवी-जल-जलण-मारुय. एक्कक्के सत्त सत्त लक्खाओ। वण-पत्तेय-श्रणंते दस चोदस जोणिलक्खाओ ॥ विगिलिदिएसु दो दो चउरो य णारयसुरेसुं । तिरिएसु हुंति चउरो चोद्दस लक्खा य मणुएसु ॥ अर्थात्-पृथ्वीकाय, अटकाय, तेउकाय और वायुकाय की सात-सात लाख, प्रत्येक वनस्पति की दस लाख, साधारण ( अनन्तकाय ) वनस्पति की चौदह लाख, द्वीन्द्रिय की दो लाख, श्रीन्द्रिय की दो लाख, चतुरिन्द्रिय की दो लाख, नारक की चार लाख, देव की चार लाख, तिर्यञ्च पञ्चन्द्रिय For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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