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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम उद्देशक ] " यद्यपि क्रिया-मात्र से कर्म का बन्ध होता है तदपि कषाय-युक्त आत्मा को होने वाला कर्मबन्ध कषाय की तरतमता के कारण न्यूनाधिक स्थिति वाला तथा यथासंभव शुभाशुभ फल देने वाला होता है और कषाय-रहित आत्मा को होने वाला कर्म-बन्ध, कषाय के प्रभाव से केवल दो समय की स्थिति वाला ही होता है और वह विपाक का जनक भी नहीं होता। कषाय युक्त प्रात्मा का कर्म-बन्ध 'साम्परायिक' कहलाता है और कषाय-रहित अात्मा का कर्मवन्ध 'ईर्यापथिक' कहलाता है। जिस प्रकार गीले चमड़े पर लगी हुई धूल उसके साथ चोंट जाती है इसी तरह योग के द्वारा आकृष्ट कर्म कषायोदय के कारण से प्रात्मा के साथ सम्बद्ध होकर दीर्घकाल तक बने रहते हैं वह साम्परायिक कर्म कहलाते हैं । जिस प्रकार सूखी भींत पर लगा हुआ रेत का गोला लगते ही छूट जाता है इस तरह जो कर्म योग के द्वारा आकृष्ट होकर आत्मा के साथ लगते ही छूट जाते हैं यह ईयापथिक कर्म कहलाते हैं । सारांश यह है कि तीनों प्रकार के योग की समानता होने पर भी कषाय न हो तो कर्म की स्थिति और रस का बंध नहीं होता है। स्थिति और रस के बंध का कारण कषाय ही है। इससे कषाय ही संसार का मूल है । यह जानकर कषायों को छोड़ने की ओर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए | प्रात्मा के परिभ्रमण को रोकने के लिए कषायों का परित्याग और उसके बाद योगों की क्रियाओं का निरोध करना चाहिए। इससे कर्मबन्ध का अभाव होगा और आत्मा का भवभ्रमण रुक जावेगा। सूत्रकार ने इस सूत्र में तीनों काल का निर्देश किया है। इससे भी आत्मतत्त्व की सिद्धि होती है। पहले अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान तथा जातिस्मरणशान से प्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध किया था। यहाँ इसी भव में होने वाली विभिन्न-कालीन क्रियाओं के द्वारा प्रात्मा की सिद्धि की है । “मैंने किया, मैं करता हूँ और मैं करूँगा" यह कहकर सूत्रकार यह बताना चाहते हैं कि इस देह से व्यतिरिक्त त्रिकाल संस्पर्शी आत्म द्रव्य है जो तीनों काल की क्रियाओं के रूप में परिणत होता है । यह परिणामी स्वभाव अात्मा को एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य मानने वालों के मत में सम्भव नहीं। यह परिणमन तो अनेकान्त पक्ष में ही सम्भव है। इस प्रकार इस सूत्र के द्वारा प्रात्मा का अस्तित्व और कर्मबन्धन का विचार किया गया है। आगे सूत्रकार यह बताते हैं कि जो इन कर्म सम्मारम्भों को भलीभांति जानकर प्रत्याख्यान परिक्षा के द्वारा छोड़ देता है वह इन दिशा-विदिशाओं में भ्रमण करता हुआ अनेक अनिष्ट संयोगों से कष्ट का अनुभव करता है: अपरिगणायकम्मा' खलु अयं पुरिसे जो इमानो दिसाश्रो अणुदिसायो अणुसंचरइ, सब्बाश्रो दिसायो सव्वाश्रो अणुदिसायो साहेति । अणेगरूवारो जोणीश्रो संधेइ, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ (सू. ७) -कम्मे । २-संवाद। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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