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[आचाराङ्ग-सूत्रम् परिभ्रमण करता है। कर्मबन्धन का कारण क्रिया है। जब तक क्रिया है तब तक कर्मबन्धन है। अतएव यहाँ क्रिया का स्वरूप बताया गया है।
योग के निमित्त से कर्मवन्धन होता है। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति-क्रिया को योग कहते हैं । भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यत्काल की अपेक्षा से मन, वचन और काया की क्रियाओं के विकल्पों का कथन इस सूत्र में किया गया है ।
१-३ मैंने किया, मैंने करवाया, मैंने करते हुए को अनुमोदन दिया। ४-६ मैं करता हूँ, मैं करवाता हूँ, मैं करते हुए को अनुमोदन देता हूँ। ७. ६ मैं करूँगा, मैं करवाऊँगा, मैं करते हुए को अनुमोदन दूंगा।
उक्त नव विकल्पों को मन, वचन और काया से गुणा करने से २७ विकल्प होते हैं । नौ मेद मनोयोग के, नौ भेद वचनयोग के और नौ भेद काययोग के ये २७ कर्मसमारम्भ हैं।
यद्यपि सूत्रकार ने मूल सूत्र में इन २७ प्रभेदों का उल्लेख नहीं किया है, केवल प्रथम, द्वितीय और अन्तिम भेद का उल्लेख किया है तदपिइससे यह समझ लेना चाहिए कि प्रथम और अन्त के मध्यवर्ती भेदों का ग्रहण भी इष्ट है। यही बात स्पष्ट करने के लिए द्वितीय भेद का भी सूत्र में साक्षात् ग्रहण किया गया है । सूत्र में आये हुए दो चकार और अपि शब्द से मन, वचन और काया का ग्रहण कर लेना चाहिए ।
उक्त २७ विकल्पों में सब प्रकार के कर्मसमारम्भों का समावेश हो जाता है । इसीलिए सूत्रकार कहते हैं कि लोक में इतने ही कर्म-समारम्भ जानने चाहिए, न्यूनाधिक नहीं। समस्त शुभाशुभ कर्मों का ग्रहण मन, वचन और काया रूप तीन योग से तथा कृत, कारित और अनुमति रूप तीन करण से होता है । अतः इनके ग्रहण से समस्त क्रियाओं का ग्रहण स्वयमेव हो जाता है।
इन कर्मसमारम्भों के कारण ही जीवात्मा संसार में परिभ्रमण करता है अतः मोक्ष प्राप्त करने के लिए इन कर्म-समारम्भों का परिज्ञान करना चाहिए । शास्त्रकारों ने दो प्रकार की परिक्षा बताई है-ज्ञ परिशा और प्रत्याख्यान परिज्ञा । ज्ञ-परिज्ञा के द्वारा इन क्रियाओं के बन्ध-स्वरूप का शान करना चाहिए और प्रत्याख्यान परिक्षा के द्वारा पाप कर्मों का परित्याग करना चाहिए । हेय का त्याग और उपादेय का उपादान करने में ही ज्ञान की सार्थकता है । वही शान सच्चा ज्ञान है जिसके द्वारा हेय कर्मों का परित्याग किया जाय । यही बात सूत्रकार ने "परिजाणियव्वा" शब्द से स्पष्ट की है।
यहाँ मन, वचन और काया की किया-मात्र को कर्मसमारम्भ कहा गया है। मन, वचन और काया की क्रिया शुभ भी होती है और अशुभ भी होती है। इनके शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता है। शुभ उद्देश्य से की जाने वाली क्रिया शुभ क्रिया है और अशुभ उद्देश्य से की जाने वाली क्रिया अशुभ क्रिया है । शुभ क्रिया के द्वाराप्रधानतया शुभ कर्म प्रकृतियों का बंध होता है और अशुभ क्रिया के द्वारा प्रधानतया अशुभ कर्म-प्रकृतियों का बंध होता है। जब तक योग की प्रवृत्ति है तब तक शुभाशुभ कर्मों का वन्धन होता है। योग का निरुन्धम होते ही कर्म-बंध का भी प्रभाव हो जाता है।
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