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प्रथम उद्देशक ]
[ ३१
जो कर्मवादी है वही क्रियावादी है। अर्थात् जो कर्म के स्वरूप को जानता है वही शुभ क्रियाओं की ओर अग्रसर होता है और अशुभक्रियाओं से निवृत्त होता है। वही कर्म-बन्धन से मक्त होने के लिए प्रयत्न करता है। जो कर्म में विश्वास रखता है वही सचा क्रियावादी होता है। कर्मबन्धन का कारण क्रिया ही है। जो कार्यरूप कर्म को मानता है वह उसके कारणरूप क्रिया को अवश्य मानेगा ही । तात्पर्य यह हुआ कि जो सच्चा आत्मवादी है, वही सच्चा लोकवादी है, वही सचा कर्मवादी है और वही सच्चा क्रियावादी है। इसका फलित अर्थ यह हुआ कि जो सच्चा आत्मवादी है वह आत्मवाद के साथ लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद को तथा स्वभाव, नियति आदि कारणों के समन्वय को मानता है। एकान्त पक्ष मिथ्या है और अनेकान्त ही सच्चा वस्तु-स्वरूप है। सब वादों का समन्वय करके सूत्रकार ने यह बताया कि कर्म के प्रावरण को दूर करने के लिए जैसे आत्मज्ञान की आवश्यकता है उसी तरह तदरूप क्रिया की भी आवश्यकता है । केवल तत्वज्ञान की बातें करने से वह आवरण दूर नहीं हो सकता और केवल अन्धक्रियाओं से भी उस आवरण से मुक्ति नहीं मिल सकती है। प्रात्मज्ञान और तदनुकूल क्रिया ही मुक्ति का अनुपम मार्ग है।
अकरिस्सं चऽहं, कारवेसं चऽहं, करो प्रावि समणुन्ने भविस्सामि । एयावंति सम्वावंति लोगंसि कम्मसमारम्भा परिजाणियब्वा भवंति (सू. ६)
संस्कृतच्छाया-अकार्षचाहम्, अचीकरम् चाहं, कुर्वन्तच्चापि अनुज्ञास्यामि । एतावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्या भवति ।
शब्दार्थ-अकरिस्सं चऽहं मैंने किया । कारवेसुचऽहं मैंने करवाया । करो आवि समणुन्ने भविस्सामि-करते हुए अन्य को अनुमोदन दूंगा। एयावंति सव्वावंति सब इतने ही। लोगंसि-लोक में। कम्मसमारम्भा कर्मबन्धन की हेतुरूप क्रियाएँ। परिजाणियव्वा भवंति= समझनी चाहिए।
भावार्थ-(१) मैंने किया (२) मैंने कराया (३) मैंने करते हुए को अनुमोदन दिया (४) मैं करता हूँ (५) मैं करवाता हूँ (६) मैं करते हुए को अनुमोदन देता हूँ (७) मैं करूँगा (८) मैं कराऊँगा (१) मैं करते हुए को अनुमोदन दूंगा ( इन नव भेदों को मन, वचन और कायारूप तीन योगों से गुणित करने पर सत्तावीस विकल्प होते हैं ) लोक में यही सब कर्मबन्धन के कारण रूप भेद हैं ऐसा समझकर इनका त्याग करना चाहिए।
विवेचन--पूर्ववर्ती सूत्रों में आत्म-शान का निरूपण करते हुए यह कहा गया है कि जो आत्मवादी है वही सचा कर्मवादी और क्रियावादी है । आत्मा और कर्म का अनादिकाल से सम्बन्ध है। इसी सम्बन्ध के कारण शुद्ध, बुद्ध, निरञ्जन-निराकार होते हुए भी भात्मा दिशा-विदिशा में
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