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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन अष्टम उद्देशक इन्द्रियैरव्यमानः शमितामाहारयेन्मुनिः। तथापि सोऽगमुः अनलो यः समाहितः ॥१४॥ शब्दार्थ-हरिएसु=आदि हरियाली पर ।न निवजिजा-शयन न करे ।थण्डिलं= शुद्ध भूमि को । मुणिया जानकर । सए सोचे । विश्रोसिज-उपधि को छोड़कर । अणाहारो= आहार का सर्वथा त्याग करे। पुटो परीषह उपसर्ग आने पर । तत्थ-उस संस्तारक पर रहा हुआ। अहियासए सहन करे ॥१३॥ इन्दिएहिं-इन्द्रियों के द्वारा । गिलायन्तो-ग्लानता का अनुभव करने पर भी। मुणी=मुनि । समियं-शान्ति अथवा समभाव । अाहरे स्थापित करे । तहा वि=हलन-चलनादि करता हुआ भी। से वह मुनि । अगरिहे अनिन्दनीय है । जे–जो अचले विचलित नहीं होता हुआ । समाहिए समाधि में स्थित रहता है ॥१४॥ भावार्थ- दूब, अंकुर श्रादि हरितकाय पर न सोवे, भूमि को शुद्ध जानकर सोवे । सब प्रकार की उपधि को त्याग कर, आहार का परिहार करके, परीषह-उपसर्ग के आने पर संस्तारक पर रहा हुआ समभावपूर्वक सहन करे ॥१३॥ निराहार रहने के कारण इन्द्रियों को शिथिल हुई देखकर मुनि समभाव धारण करे. आतध्यान न करे । इगितमाण में शरीर की हलन-चलन रूप क्रिया निन्दनीय नहीं है अतः हलन-चलनादि क्रिया करता हुआ भी जो भाव से विचलित नहीं होता और समाधिवन्त है वह अनिन्दनीय है ॥१४॥ विवेचन-इतनी उत्कृष्ट और कठिनतम साधना करते हुए कहीं सूक्ष्म प्राणिदया के प्रति साधक उपेक्षा न करने लगे इसलिए यहाँ पुनः प्राणियों की दया करने का कहा गया है । साधक का सर्वप्रथम लक्ष्य प्राणियों का सर्वथा संरक्षण करना होना चाहिए इसलिए उस विषय में पुनः पुनः कहा जाता है। इङ्गितमरण की आराधना करने वाला मुनि हरितकाय युक्त भूमि पर संस्तारक न करे किन्तु अचित्त भूमि पर संस्तारक करे और उस पर शयन करे । सब प्रकार की बाह्य और आभ्यन्तर उपधि का परित्याग करे और सर्वथा निराहार रहे । उस संस्तारक पर रहे हुए ही आने वाले और परीषह और उपसगों को समभाव से सहन करे । इस प्रकरण में एक ही बात कई बार कही गई है सो इसका श्राशय यह मालूम होता है कि सूत्रकार इन बातों पर विशेष भार देना चाहते हैं। निराहार रहने के कारण इन्द्रियों का शिथिल हो जाना और ग्लानता का अनुभव होना स्वाभा'विक है तदपि दृढ़ मनोबल वाले साधक आर्तध्यान नहीं करते हुए समभाव और शान्ति धारण करते हैं। एक ही स्थान पर रहने के कारण चित्त में ग्लानि अा जाय तो अमुक चेष्टाओं के द्वारा उसका निवारण करना चाहिए। जैसे अंगादि के संकोचन से ग्लानि का अनुभव होने लगे तो अङ्गों को फैजा लेना चाहिए। इससे भी खिन्नता मालूम हो तो बैठ जाना चाहिए। इससे भी मन ऊब जाय तो मर्यादिन-प्रवेश में संचरण करना चाहिए । इस तरह जिस प्रकार वह ग्लानि दूर हो ऐसा प्रयत्न करना चाहिए । इजितमरण में नियमित प्रदेश में हलन-चलन क्रिया करना निषिद्ध नहीं है अतः हलन-चलन करता हुआ भी वह साधक निन्दनीय नहीं है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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