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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [आचाराग-सूत्रम् विविध प्रकार के अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य सद्ग्रन्थों के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ और धर्मध्यान, शुक्लध्यान में लीन होता हुआ अपने जीवन को सुख-समाधिमय स्वरूप में ममात करे। ऐसा साधक या तो सिद्धि को प्राप्त करता है या कमों के शेष रह जाने पर स्वर्ग में जाता है और बाद में सिद्धि गति को प्राप्त होता है। अतएव साधकों को यथाविधि भक्त-परिज्ञा मरण की आराधना करनी चाहिए। सूत्रकार भक्त परिक्षा के बाद क्रमप्रत इङ्गितमरण का निरूपण करते हुए कहते हैं कि यह उच्चश्रेणी किन्हीं २ विशिष्ट धृति-संहनन वाले एवं गीतार्थ साधकों के लिए ही ग्राह्य है। उत्कृष्ट क्रिया का पालन करने के लिए शरीर भी उत्कृष्ट शक्ति वाला होना चाहिए और ज्ञान भी विशिष्ट होना चाहिए। तभी अन्त तक दृढ़ता रह सकती है । अन्यथा बीच में ही विचलित होने से 'अतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' वाली हालत हो जाती है। अतः किसी विशिष्टतर कार्य को हाथ में लेने के पूर्व अपनी शक्ति का अपने आप माप निकालना चाहिए। यदि उस कार्य को अन्त तक पार पहुँचाने की शक्ति दिखाई दे तो ही उसे हाथ में लेना चाहिए अन्यथा नहीं। इङ्गितमरण भी कष्ट-साध क्रिया है अतएव इसे ग्रहण करने के पूर्व पूरी२ शक्ति की परीक्षा कर लेनी चाहिए । सूत्रकार स्वयं कह रहे हैं कि वही व्यक्ति इसे अङ्गीकार कर सकता है जो विशिष्ट गीतार्थ और विशिष्ट धृति-संहनन आदि गुणों से युक्त हो। टीकाकार लिखते हैं कि जो जघन्यतः नौ पूर्वो में विशारद होता है और विशिष्टतर धीर-वीर होता है वही इसे अंगीकर कर सकता है। दूसरा नहीं। ऐमो विशिष्ट क्रिया का सफल अधिकारी वही हो सकता है जिसमें उसे अन्त तक पार पहुँचाने की शक्ति हो। इङ्गितमरण में वही सब पूर्वोक्त भक्त-परिज्ञा के ममान विधि करनी होती है, विशेषता यह है कि इसमें नियमतः चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करना होता है और नियमित प्रदेश में ही-संस्तारक पर ही हलन चलन करने की छूट होती है। प्रत्रज्या ग्रहण, शिक्षा, सूत्रार्थ अध्ययन, प्रतिमा स्वीकार, संलेखना आदि सब पूर्ववत् समझना चाहिए । इसमें सब उपकरणों का परित्याग कर, संस्तारक भूमि को देखकर, आलोचना-प्रतिक्रमण कर, पांच महाव्रतों को पुनः स्वीकार कर चारों आहार का प्रत्याख्यान कर संस्तारक पर शयन करना होता है। इस इङ्गितमरण में ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान महावीर ने यह विशेष धर्म बतलाया है कि इसे स्वीकार करने वाला साधक अपने सिवाय किसी दूसरे से ली जाने वाली सेवा का त्रिकरण त्रियोग से त्याग करता है । वह सब क्रियाएं अपने आप ही करता है। वह स्वयं ही करवट बदलता है और नीहार भी स्वयं ही बिना किसी की महायता के करता है । तात्पर्य यह है कि इस मरण को स्वीकार करने वाला साधक सम्पूर्ण स्वावलम्बी ही होता है । यह इङ्गितमरण का स्वरूप है । इसे अपनाने वाला साधक शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करता है। हरिएसु न निव जिजा, थण्डिलं मुणिया सए। विश्रोसिज प्रणाहारो, पुट्टो तत्थऽहियासए ॥१३॥ इन्दिएहिं गिलायन्तो समियं श्राहरे मुणी । तहावि से अगरिहे अचले जे समाहिए ॥१४॥ संस्कृतच्छाया-हरितेषु न शयीत स्थण्डिलं मत्वा शयीत । व्युत्सृज्य अनाहारः स्पृष्टस्तत्राभ्यासयेत् ॥१३॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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