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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन अष्टम उद्देशक ] [५७३ कण्टक के समान डंक दिए जाने पर भी अमृत से सिञ्चित होने पर होने वाली शान्ति का अनुभव करता है और शान्तिपूर्वक वेदना को सहन करता है। देह पर से ममता उतर जाने के बाद साधक को शारीरिक वेदनाएँ विचलित नही कर सकतीं। जब तक देह पर ममत्व होता है तब तक ही वेदनाएँ प्रबल बनकर मुनि को विचलित बना सकती हैं । संथारे में रहा हुआ मुनि आत्मा और शरीर की पृथक्ता को हृदयंगम करके शुभ अध्यवसायों में तलालीन होता है अतएव शारीरिक वेदनाओं को वह भलीभांति सहन कर लेता है। शरीर को वेदना पहुँचाने वाले प्राणियों के प्रति उसे तनिक भी द्वेष या क्रोध नहीं हो सकता। यह देह की ममता के परित्याग की कसौटी है। साधक को इस कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। गंथेहिं विवित्तेहिं श्राउकालस्स पारए । पग्गहियतरगं चेयं दवियस्स वियाणश्रो ॥११॥ अयं से अवरे धम्मे नायपुत्तेण साहिए। प्रायवजं पडीयारं विजहिजा तिहा तिहा॥१२॥ संस्कृतच्छाया-ग्रन्थैर्विविक्तैः, आयुः कालस्य पारगः । प्रगृहीततरकं चेदं द्रव्यस्य विजानतः ॥११॥ अयं सोऽपरो धर्मो शातपुत्रेण स्वाहितः । आत्मवर्ज प्रतिचारं विजह्यात् त्रिधा त्रिधा ॥१२।। शब्दाथे-गंथेहिं बाह्य-प्राभ्यन्तर ग्रन्थि से। विवित्तेहि-पृथक होकर । आउकालस्स-जीवन को । पारए पार करे । वियाणो-गीतार्थ। दवियस्स-संयमी के लिए । चेयं यह इङ्गितमरण । पग्गहियतरगं विशेष रूप से ग्रहण करने योग्य है ॥११॥ नायपुत्तेण ज्ञातपुत्र भगवान् के द्वारा। अयं से यह । अवरे धम्मे=विशष धर्म । साहिए भलीभांति कहा गया है। आयवज्जं पडीयार-दूसरों से ली जाने वाली सेवा का । तिहा तिहा=तीन करण तीन योग से । विजहिजा त्याग करे ॥१२॥ भावार्थ-बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थि का त्याग करके आयुकाल के अन्त तक-अन्तिम श्वासोच्छवास तक शुद्ध ध्यान में रहे । ( यह भक्तपरिज्ञा का कथन हुआ । अब इंगितमरण का कथन करते हैं । ) यह इंगितमरण गीतार्थ संयमी साधकों के लिए विशेष रूप से ग्रहण करने योग्य है ॥११॥ ज्ञातपुत्र श्री महावीर ने इस इंगितमरण में यह विशेष धर्म बतलाया है कि आत्म-व्यापार के सिवाय दूसरों से ली जाने वाली सेवा का तीन करण तीन योग से त्याग करे ॥१२॥ विवेचन-भक्तपरिज्ञा मरण का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि वह साधक सब प्रकार के ग्रन्थ-संयोगों का त्याग करके जीवन के अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक आत्मध्यान में निमग्न रहे। अथवा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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