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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६६ ] [प्राचाराग-सूत्रम् करने वाले धीर पुरुष सच्चे संयमी और बुद्धिमान् हैं । यह सब अनुपम कथन है, अन्यत्र कहीं ऐसा विधान नहीं है अतः मुनि यह सब जानकर समाधिवन्त बने ॥ १ ॥ बुद्धिमान् और धर्म के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानने वाले मुनि बाह्य और आभ्यन्तर तप का सेवन कर या बाह्य और आभ्यन्तर उपधि का त्याग कर क्रमशः शरीर-मोक्ष के अवसर को जानकर संलेखना स्वीकार कर शरीर के पोषण रूप प्रारम्भ से दूर हो जाते हैं ॥२॥ विवेचन-इन गाथाओं में क्रमपूर्वक संलेखना आदि करने का विधान किया गया है। क्रमपूर्वक की हुई साधना ही प्रायः सफल होती है । जो व्यक्ति क्रम को छोड़कर एकदम आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है वह प्राय: असफल और निराश ही होता है । क्रमपूर्वक कार्य करने से वह कार्य सुव्यवस्थित, चिरकालस्थायी और सफल परिणाम वाला होता है। प्रत्येक कार्य चाहे वह दुनियादारी का हो या चाहे वह धार्मिक हो–क्रमशः किये जाने पर ही इष्ट फल का देने वाला होता है। इसलिए संयम की साधना भी क्रमशः करनी चाहिए, यह इन गाथाओं में कहा गया है । दीक्षाग्रहण करना, तत्पश्चात् आसेवनी आदि शिक्षाओं का ग्रहण करना, सूत्र और अर्थ का अध्ययन करना और सब तरह से योग्य तथा परिपक्व बनने पर विविध प्रतिमाओं को अङ्गीकार करना इस क्रम से संयम का पालन करते हुए विचरण करना चाहिए । इस प्रकार यथाक्रम संयम का पालन करते हुए अवस्था-परिणाम से या अन्य कारणों से साधक का शरीर क्षीण और दुर्बल हो जाय, वह धर्म क्रियाओं का सम्यक् पालन करने में अशक्त-सा प्रतीत होने लगे तो साधक को समझना चाहिए कि अब यह आत्मा इस शरीर के बन्धन को तोड़ देने वाली है, आत्मारूपी हंस इस जर्जरित पीजड़े से बाहर होना चाहता है। अब इस जीर्ण शरीर से मुझे कोई लाभ नहीं हो रहा है। यह मेरे संयम की साधना में सहायक न होकर बाधक हो रहा है। इसलिए अब मुझे इसका परित्याग कर देना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में भक्त-परिज्ञा, इङ्गितमरण अथवा पादपोपगमन अङ्गीकार करना क्रम-प्राप्त समाधिमरण है। जो साधक शरीर की जीर्ण-शीर्ण दशा को देखकर और मृत्यु का आगमनकाल जानकर सुब्ध नहीं होता, जिसे किसी तरह का भय और आशंका नहीं होती, जो आकुल-व्याकुल नहीं हो जाता और दृढ़तापूर्वक देह के ममत्व को छोड़कर संलेखना आदि स्वीकार करता है वही सच्चा संयमी और बुद्धिमान् है। हेय को छोड़ना और उपादेय को ग्रहण करना ही तो बुद्धिमानी है । वह साधक हेय शरीर को छोड़ने के लिए उद्यत हो जाता है और भक्त-परिज्ञादि उपादेय को अङ्गीकार करता है इसलिए वह सञ्चा बुद्धिमान है। शरीर-मोक्ष के अवसर के प्राप्त होने पर इस प्रकार संलेखना का स्वीकार करना समाधिमरण का अनुपम मार्ग है। ऐसा विधान अन्यत्र कहीं नहीं है । यह जानकर अपनी शक्ति एवं धृति को जांचकर तदनुकूल भक्त-परिज्ञा आदि मरण स्वीकार करना चाहिए। यह स्वीकार करके समाधि का अनुपालन करना चाहिए। धर्म के स्वरूप को जानने वाले बुद्धिमान मुनि दो प्रकार के बाह्य एवं श्राभ्यन्तर तप को जान कर उनका सेवन करते हैं तथा बाह्य शरीर आदि उपकरण और अन्तरंग राग श्रादि हेय पदाथों को जानकर परित्याग करते हैं। इस प्रकार यथाक्रम संयम की पालना करते हुए शरीर के क्षीण होने पर वे आहारादि का त्याग कर देते हैं। वे शरीर के भान से अतीत हो जाते हैं अतः उसके पोषण के लिए For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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