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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [ ५३७ अकरणयाए अाउट्टे तवस्सिो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए सेऽवि तत्थ वि अंतिकारए, इचेयं विमोहायतणं हियं सुहँ खमं निस्सेसं प्राणुगामियं त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया–यस्य भिक्षोरेवं भवति-स्पृष्टः खल्वा मस्मि नालमहमस्मि शीतस्पर्शमधिसोदुम् , स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रशानेनात्मना कश्चित् तदकरणतया आवृत्तः, तपस्विनस्तत् श्रेयः यदैकः वैहानसादि कमादद्यात् , तत्रापि तस्य कालपर्थायः सोऽपि तत्र व्यन्तिकारकः इत्येतद् विमोहायतनं हितं सुख क्षमं निःश्रेयसमानुगामिकमिति ब्रवीमि । शब्दार्थ-जस्स णं जिस । भिक्खुस्स–साधु को । एवं भवइ=ऐसा मालूम हो कि । पुट्ठो खलु अहमंसि=मैं उपसर्गों में फंस गया हूं। सीयफासं-शीत-स्पर्शादि उपसर्ग को । अहियासित्तए-सहन करने में । नालमहमंसि=मैं समर्थ नहीं हूँ तो। से वसुमं वह संयमधनी । सव्वसमन्त्रागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अपनी समस्त ज्ञान बुद्धि द्वारा सोचकर । अकरणयाए वह अकार्य नहीं करता हुआ। आउट्टे व्यवस्थित रहे। तवस्सिणो तपस्वी के लिए। हुतं सेयं वह श्रेयस्कर है । जमेगे जो एकेक । विहमाइए फांसी खाकर अपघात करते हैं । तत्थापि यह अफ घात मरण भी । तस्स-उस भिक्षुक के लिए । कालपरियाए=समय प्राप्त मृत्यु के समान ही है । से वि-वह मरने वाला भी । तत्थ इस अपघात में भी । वि अन्तिकारए कर्मों का अन्त करता है । इच्चेयं यह मरण भी। विमोहाययणं निर्मोही का आश्रय है। हियं हितकारी है। मुहंसुखरूप है । खमं योग्य है । निस्सेसं मोक्ष का कारण है। आणुगामियं अन्य भव में भी पुण्यप्रद है। त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूं। भावार्थ-साधना के कठिन मार्ग में चलते हुए साधक को कभी ऐसा मालूम पड़े कि मैं परीषह और उपसर्गों से घिर गया हूँ और उन्हें सहन करने के लिए मैं सर्वथा असमर्थ हूँ तो ऐसे प्रसंग पर साधक को प्रथम तो अपनी समस्त बुद्धि द्वारा सोचकर बने वहां तक उस उपसर्ग से बच निकलना चाहिए परन्तु अकार्य में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। यदि किसी भी तरह बचने की सम्भावना न हो तो वैहानसादि (अकाल) मरण से मर जाना चाहिए परन्तु अकार्य में प्रवृत्ति न करनी चाहिए । इस प्रसंग का आकस्मिक मरण भी अनशन और मृत्युकाल के मरण के समान निर्दोष और हितकर्ता है। इस तरह मरण की शरण होने वाले मुक्ति के अधिकारी हो सकते हैं। कतिपय निर्मोही अात्माओं ने ऐसे प्रसंग पर मरण का शरण लिया है इसलिए यह हितकारी, सुखकारी, युक्तियुक्त कर्मक्षय का हेतुभूत और भवान्तर में भी पुण्यप्रद है, ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस सूत्र में प्रतिज्ञा-पालन और संकल्प बल की दृढ़ता का प्रतिपादन किया गया है। साधक में इतना संकल्प-बल. होना चाहिए कि वह एकबार जो व्रत-प्रतिज्ञा अङ्गीकार करले उसे अन्त For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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