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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५३८] [प्राचाराङ्ग-सूत्रम् तक निभावे। चाहे प्राणों का बलिदान चढ़ाना पड़े तो भी वीर-धीर साधक प्रतिज्ञा से पतित नहीं हो सकता है। सूत्रकार कहते हैं कि यदि साधक को ऐसा मालूम हो कि "मैं शीतस्पर्शादि उपसगों द्वारा गिर गया हूँ और में उन्हें सहन करने में समर्थ नहीं हूँ" तो उसे मरण की शरण में जाना चाहिए परन्तु अकार्य में प्रवृत्ति न करनी चाहिए । मूलपाठ में "शीतस्पर्श" शब्द दिया गया है। परन्तु वृत्तिकार और टीकाकार का मत यह है कि शीतस्पर्श का अर्थ केवल ठन्ढ का परीषह ही नहीं है परन्तु यहाँ भावशीत-स्त्री का उपसर्ग अभीष्ट है। यह बात अधिक सुसंगत है। क्योंकि शीतादि के परीषह के निवारण के लिए तो अधिक वस्त्रादि रखने का सूत्रकार प्रथम ही कह चुके हैं इसलिए केवल बाह्य द्रव्यशीत के उपसर्ग का आशय नहीं है बल्कि “स्त्री आदि के उपसर्ग से" यहाँ सूत्रकार का श्राशय है। कदाचित् कोई युवती स्त्री कामविह्वला होकर हावभाव-कटाक्षादि के द्वारा मुनि को उपसर्ग देने की चेष्टा करे और उसे भोग भोगने के लिए प्रार्थना और निमंत्रण करे। ऐसे प्रसंग के उपस्थित होने पर साधक अपनी प्रज्ञा, बुद्धि और युक्ति द्वारा उससे बचने का प्रयत्न करें लेकिन मुनि को यह मालूम हो कि मैं बुरी तरह घिर गया हूँ और बचने का कोई उपाय दिखाई न दे तो सूत्रकार फर्मा रहे हैं कि ऐसे मौके पर साधक को फांसी खाकर, ऊपर से गिरकर अपघात कर लेना श्रेयस्कर है लेकिन अब्रह्म का सेवन करना योग्य नहीं है । भगवान् ने सभी व्रतों और नियमोपनियमों के लिए उत्सर्ग और अपवाद मार्ग कहे हैं परन्तु ब्रह्मचर्य व्रत में किसी प्रकार का अपवाद नहीं बताया है । ब्रह्मचर्य का पालन तो प्रत्येक अवस्था में साधक के लिए अनिवार्य ही है। इसमें कोई अपवाद का स्थान ही नहीं है । ऐसे अपवादरहित ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए सूत्रकार वैहानस मरण, गाधपृष्ट मरण आदि अपघात करने का योग्य सूचन कर रहे हैं। शंका हो सकती है कि शास्त्रों में अपघात करने का निषेध किया गया है और उसे अनन्त संसार की वृद्धि का कारण कहा है जैसाकि भागम का पाठ है किः इच्चेएणं बालमरणे मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पारणं संजोएइ जाव प्रणाइयं च अणवयग्गं चाउरंत संसारकंतारं भुजो भुजो परियट्टर। अर्थात्-अपघातिक बालमरण से मरने वाला जीव नरकगति के अनन्त भव ग्रहण करता है और अनादि अनन्त संसार वन में पुनः पुनः भटकता है । इस आगम प्रमाण से वैहानसमरण, विषभक्षण आदि अनर्थ के कारण सिद्ध होते हैं फिर यहाँ उनका विधान कैसा किया जाता है ? इस शंका का समाधान यह है कि पाहत मत में मैथुनभाव को छोड़कर एकान्ततः न तो किसी का विधान किया गया है और न निषेध किया गया है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से कर्त्तव्य अकर्तव्य हो जाता है और प्रकर्त्तव्य कर्त्तव्य हो जाता है । कहा भी है: - उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालामयान्प्रति । यस्याम् कामकार्य स्यादकार्य कार्यमेव च ॥ यह श्लोक वैद्यकग्रन्थ का है। इसमें कहा गया है कि ऐसी अवस्थाएँ उत्पन्न होती है जबकि अकार्य कार्य होता है और कार्य अकार्य हो जाता है । स्थान, समय और रोगी की विभिन्नता से ऐसे प्रसंग For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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