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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir • [प्राचारा-सूत्रम् और साधनों की लघुता से अप्रतिबन्ध विहार में सुगमता भी होती है। साथ ही उपकरण लाघव से ममत्व का भी लाघव होता है और ममत्वलाघव से बन्धलाघव होता है । उपकरण में की लघुता से साधक को तपो गुण की सहज ही प्राप्ति हो जाती है। इस तरह वह साधक तप की आराधना का सुअवसर प्राप्त करता है। वस्त्र-परिहार से शीतादि का उपद्रव होने पर उसे सहन करने से कायक्लेश नामक तप की आराधना होती है । बागम में कहा है: पंचहिं ठाणेहिं समणाणं निग्गंथाणं अचेलगत्ते पसत्थे भवति तंजहा-(१) अप्पा पडिलेहा (२) वेसासिए रूवे ( ३) तवे अणुभए (४) लाघवे पसत्थे (५) विउले इंदियनिग्गहे। अर्थात्-इन पाँच कारणों से श्रमण निम्रन्थों की अचेलता प्रशंसनीय होती है (१) अल्प प्रतिलेखना (२) वैश्वसिक रूप (३) तप की प्राप्ति (४) लाघवप्रशस्त और विपुल इन्द्रिय निग्रह । इस आगम वाक्य में यह बताया गया है कि जो साधक अल्प वखादि रखता है या बिल्कुल नहीं रखता है उसे प्रतिलेखना अल्प करनी पड़ती है। दूसरी बात ऐसा करने से वह विश्वनीय होता है-जनसमाज उसकी अचेलकता देखकर ही उसकी साधकता का विश्वास कर लेते हैं। तीसरी बात-ऐसा करने से सहज ही तप की आराधना हो जाती है । चौथी बात-अचेलकता से उपकरण लघुता प्राप्त होती है और पांचवी बात यह है कि इससे खूब इन्द्रिय-निग्रह होता है । इन कारणों से साधक को अचेलकता का विशेष ध्यान रखना चाहिए । यह सब प्रभु महावीर के वचन हैं । इन वचनों को भलीभांति समझ कर सर्वथा सर्वात्मरूप से समभावपूर्वक असेवन परिज्ञा द्वारा उनका पालन करना चाहिए। सूत्रकार ने "सम्मतं" पद देकर यह स्पष्ट किया है कि साधक सचेल अवस्था में और अचेलावस्था में समभाव को कायम रक्खें। वस्तुतः वस्त्र-परिहार और वस्त्र स्वीकार की क्रिया का महत्त्व नहीं है वरन् उसके पीछे रही हुई वृत्ति की प्रधानता है। क्रियामात्र कोई सदोष या निर्दोष नहीं होती। इस क्रिया के पीछे रहा हुआ आशय सदोष या निर्दोष होता है जिससे क्रिया में वैसा उपचार होता है । वस्तुतः सूत्रकार का आशय अपरिग्रहत्व से है। वन-परिहार कर देने पर भी यदि ममत्व रह गया-शरीर के प्रति श्रासक्ति रह गयी तो उससे प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसके विपरीत वस्त्र होते हुए भी यदि वृत्ति में उन पर ममत्व नहीं है तो वह बन्धनरूप नहीं होता है । मूर्छा परिग्रह है । उस मूर्छा का निवारण करना अभीष्ट है। वस्त्रादि पदार्थों का परिहार तो एक साधन है। इसलिए सचेलक और अचेलक अवस्था में समभाव रखने के लिए सूत्रकार सूचन कर रहे हैं। कई साधक अपने आपको उत्कृष्ट क्रिया पात्र समझ कर दूसरे साधकों को हीन दृष्टि से देखते हैं। यह उनका अभिमान है । ऐसे साधकों को सूत्रकार के "सम्मत्त पद पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। साधकों का कर्त्तव्य यह है कि वे अपने ही चारित्र का अवलोकन करे और दूसरे के चारित्र को देखते हुए उसमें रहे हुए गुण ही अपनी दृष्टि में लावे । इससे ही वे अपना विकास कर सकते हैं। अगर ने दूसरों के अवगुणों पर दृष्टि फैलावेंगे तो वे आत्मप्रशंसा और परनिन्दा के पाप के भागी बनेंगे। इसलिए समभाव रखते हुए आगे बढ़ने के लिए सूत्रकारने प्रेरणा की है। जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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