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प्रथम उद्देशक ]
: माता-पिता के बहुत समझाने-बुझाने पर भी राजकुमार ने राज्य-सिंहासन पर बैठना स्वीकार नहीं किया और वह अपने पिता के साथ ही तापसों के आश्रम में चला गया। वहाँ वे पिता-पुत्र तापसों की क्रियाओं का पालन करने लगे।
किसी समय अमावस्या के एक दिन पहले किसी बड़े तापस ने सूचना की कि कल प्रमावस्या है इसलिए अनाकुट्टि (कन्दमूल लता आदि का छेदन नहीं करना ) होगी। अतः अाज ही फूल, कुश, कन्दमूल, फल, इन्धन वगैरह ले आना चाहिए। यह सुनकर धर्मरुचि ने अपने पिता से पूछा कि 'अनाकुट्टि' क्या चीज़ है ? पिताने समझाया कि-कल पर्व दिन है। पर्व के दिनों में कन्दमूल आदि का छेदन नहीं किया जाता क्योंकि इनका छेदन करना सावध है।
यह सुनकर धर्मरूचि ने विचार किया कि यदि हमेशा ही अनाकुट्टि रहे तो कैसा अच्छा हो! दूसरे दिन तपोवन के मार्ग से विहार करते हुए जैन साधुओं के दर्शन का उसे अवसर मिला । उसने उन साधुओं से पूछा कि क्या आज अमावस्या के दिन भी आपके अनाकुट्टि नहीं है जो आप जंगल में जा रहे हैं ? उन साधुओं ने कहा कि हमारे लिए तो सदा ही अनाकुट्टि है। हमने सदा के लिए हिंसा का त्याग कर दिया है । यह कह कर वे साधु चले गये।
उन साधुओं के वचनों को सुनकर और उन पर ऊहापोह करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होगया कि मैंने जन्मान्तर में दीक्षा लेकर देवलोक के सुख का अनुभव किया और वहाँ से चव कर यहाँ उत्पन्न हुअा हूँ।
राजकुमार को यह विशिष्ट दिशा से श्रागमन का शान उत्पन्न हुआ सो जाति-स्मरण ज्ञान के द्वारा होने वाले आत्म-ज्ञान का उदाहरण है।
(२) पर-व्याकरण का अर्थ है-तीर्थकर के कहने से किसी जीव को अपने विशिष्ट दिशा विदिशा से होने वाले आगमन का ज्ञान होता है। 'पर' शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है । तीर्थंकरों के अतिरिक्त अन्य कौन उत्कृष्ट हो सकता है। ? अतः 'पर' से तीर्थकर का ग्रहण करना चाहिए । तीर्थकर देव के उपदेश से कई जीवों को अपनी आत्मा की पूर्वस्थिति का और अन्य अतीन्द्रिय बातों का ज्ञान होता है। इसका उदाहरण यह है
श्री गौतमस्वामी ने भगवान महावीर से पूछा कि-हे भगवन् ! मेरे हाथों से दीक्षित किये गये शिष्यों को केवलज्ञान हो गया और मुझे अब तक नहीं हुआ इसका क्या कारण है ? भगवान् ने कहा-हे गौतम ! मुझ पर तुम्हारा अतीव राग है अतः तुम्हें कैवल्य उत्पन्न नहीं होता है । गौतमस्वामी ने पुनः प्रश्न किया कि हे भगवन् ! श्राप पर मुझे इतना राग क्यों है ? तब भगवान ने उनके पहले के कई भवों का वृत्तान्त सुनाकर कहा कि-"चिरसंसिटोसि मे गोयमा! चिर परिचिोसि मे गोयमा ।" हे गौतम ! तू मेरा चिर परिचित है ! तेरा और मेरा बहुत पुराना सम्बन्ध है!
भगवान के इस कथन के द्वारा गौतम स्वामी को अपने कई भवों का ज्ञान हुआ। यह ज्ञान पर-व्याकरण-ज्ञान है।
(३) तीर्थंकर के अतिरिक्त अन्य अतिशय ज्ञानी-अवधिज्ञानी, मनःपर्यायशानी अथवा केवलज्ञानी उपदेशकों के द्वारा जो अपने पूर्वभव का ज्ञान होता है वह अन्य-व्याकरण-ज्ञान है।
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